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________________ (३४२) सूक्ष्ममाभ्योऽग्निमरूतां कालतः क्षेत्रतोऽपि च । स्यात्काल स्थितिरेषेव सूक्ष्मत्वेऽपि तथौघतः ॥१०॥ सूक्ष्म पृथ्वी काय, अपकाय, तेउ काय और वाउ काय की स्थिति काल से अथवा क्षेत्र से जितनी ही होती है और ओघ से स्वीकार करतें सूक्ष्मता में भी इतना ही है । (६०) एकेन्द्रियत्वतिर्यक्त्वासंज्ञित्वेसु प्रसंगतः । . वनस्पतित्वे क्लीवत्वे कायस्थितिमथ बुवे ॥६१॥ . यहां प्रसंगोपात १- एकेन्द्रिय रूप में, २- तिर्यंच रूप में, ३- असंज्ञी रूप में, ४- वनस्पति रूप में और ५- नपुंसक रूप में काय स्थिति कितनी होती है; उसे आगे कहते हैं। (६१) आवल्यसंख्यभागस्य यावंतः समया खलु । : स्युः पुद्गल परावर्तस्तावन्तः काय संस्थितिः ॥१२॥ सर्वेषामियमुत्कृष्ठा कायस्थितिस्दाहता । जघन्या तु भवेदन्तर्मुहूर्तमविशेषतः ॥६३॥ इति कायस्थिति ॥८॥ .. आवली के असंख्यवें भाग में जितना समय होता है उतना पुद्गल परावर्त जितना काल कायस्थिति होता है। यह सर्व की उत्कृष्ट स्थिति जानना। जघन्य से तो अन्तर्मुहूर्त की होती है। (६२-६३) . . यह आठवां द्वारा काय स्थिति के विषय में है। तैजसं कार्मणं चौदारिकं चेति वपुस्त्रयम् । .. पृथ्व्यादि सूक्ष्म जीवानां प्रज्ञप्तं परमेष्ठिभिः ॥१४॥ पृथ्वीकाय आदि सूक्ष्म जीवों का शरीर १- तैजस, २- कार्मण और ३- औदारिक- इस तरह तीन प्रकार से कहा है। (६४) निगोदानां त्वनन्तानामेकौंदारिकं वपुः । सर्व साधारणं द्वे च पुरे प्रत्येकमीरिते ॥५॥ इति देहा ॥६॥ अनन्त निगोदों का सर्व साधारण एक औदारिक शरीर कहा है और अन्य प्रत्येक के शेष दो तैजस और कार्मण शरीर कहे हैं। (६५)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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