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________________ (३३६) इन जीवों को अनुक्रम से पहले चार अथवा तीन पर्याप्ति होती है। इनके आयुष्यं, श्वास, काय बल और स्पर्शेन्द्रिय- ये चार पर्याप्त होते हैं और ये इसके प्राण कहलाते हैं तथा इनकी योनि संख्या तथा कुल संख्या अलग नहीं दिखती, इसलिए पांचवें सर्ग में बादर जीव की जो संख्या कहने में आयेगी वहीं इस सूक्ष्म की भी समझ लेना तथा यह सूक्ष्म जीव सर्व संवृत्त योनि वाले होते है। (६६ से ७१) इतना पर्याप्ति, योनि संख्या, कुल संख्या और योनि का संवृत्तत्वादि-ये चार द्वार समझना। (३ से ६) अन्तर्मुहूर्त्तमुत्कृष्टा भवत्येषां भव स्थितिः । जघन्या क्षुल्लक भव रूपमन्तर्मुहूर्त्तकम् ॥७२॥ . इन जीवों की भव स्थिति उत्कृष्ट अन्तर्मुहूत्त की है और जघन्यत: क्षुल्लक (छोटे) भवरूप अन्तर्मुहूर्त्त की है। (७२) तथोक्तम्- "दस सहससमा सुरनारयाण सेसाण खुद्द भवो ॥" इति भव स्थितिः ॥७॥ अन्य स्थान पर कहा है कि- 'देवता और नारकी जीवों की जघन्य भव स्थिति दस हजार वर्ष की है और अन्य की क्षुल्लक भव जितनी स्थिति है।' यह सातवां भव स्थिति द्वार है। सूक्ष्म निगोद जीवानां त्रिधा कायस्थितिर्भवेत् । अनाद्यन्ताऽनादि सान्ता साद्यन्ता चेति भेदतः ॥७३॥ इस सूक्ष्म निगोद के जीवों की काय स्थिति तीन प्रकार की होती है१- अनादि अनन्त, २- अनादि सांत और ३- सादि सांत ॥७३॥ सूक्ष्मान्निगोदतो ऽनादेनिर्गता न कदापि ये । नैवापि निर्गमिष्यन्ति तेषामाद्या स्थितिर्भवेत् ॥७४॥ अनन्त पुदगल परावर्त्तमाना भवेदियम् । सन्ति चैवं विधा जीवा येषामेषा स्थितिर्भवेत् ॥७५॥ जो कभी भी अनादि सूक्ष्म निगोद से नहीं निकलने और निकलने वाले भी नहीं हैं, उनकी प्रथम अनादि अनंत कायस्थिति समझना । वह अनन्त पुद्गल परावर्तन जितना काल होता है और ऐसे जीव भी होते हैं कि उनकी इतनी स्थिति होती है। (७४-७५)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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