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________________ (३३०) तथा जीव के सत्रह भेद भी होते हैं । वह इस तरह- पृथ्वीकाय आदि पांच भेद एकेन्द्रिय पूर्व (चौदहवें श्लोक में) गिने अनुसार, नौ प्रकार के पंचेन्द्रिय तथा तीन विकलेन्द्रिय मिलाकर ५+६+३ = १७ सत्रह भेद होते हैं। (१७) . प्रागुक्ता नवधा जीवाः पर्याप्तापर भेदतः । भवन्त्यष्टादश विधा जीवा एवं विवक्षिताः ॥१८॥ और जीव के अठारह भेद भी कहलाते हैं वह इस तरह- पूर्व दसवें श्लोक में नौ प्रकार के जीव कहे गये हैं । वह पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों होते हैं अर्थात् ६x२ = १८ अठारह होते हैं। (१८) पंचाक्षा नवधा प्राग्वदृशधा च परेङ्गिनः । पर्याप्तान्याः स्थूल सूक्ष्मैकाक्षाः सविकलेन्द्रियाः ॥१६॥ एकोनविंशतिविधा भवन्त्येवं शरीरिणः । . प्रागुक्ता दशधा पर्याप्तान्या विंशतिधेति च ॥२०॥युग्मं। . जीव के उन्नीस भेद भी होते हैं । वह इस तरह-पूर्वोक्त नौ प्रकार के पंचेन्द्रिय, स्थूल और सूक्ष्म एकेन्द्रिय तथा तीन विकलेन्द्रिय मिलकर पांच, फिर पर्याप्त और अपर्याप्त करने से दस मिलकर उन्नीस भेद होते हैं। तथा इसके बीस भेद भी होते हैं। वह इस प्रकार-पूर्व दसवें श्लोक में जो दस भेद कहे हैं वही पर्याप्त और अपर्याप्त इस तरह दोनों मिलकर १०x२ = २० बीस होते हैं। (१६-२०) स्थावरा विंशतिः सूक्ष्मान्यपर्याप्तान्य भेदतः । त्रसेन च समायुक्ता एक विंशतिधाङ्गिनः ॥२१॥ इसके इक्कीस भेद इस तरह होते हैं- पांच स्थावर कहे हैं, वह सूक्ष्म भी होते है और बादर भी होते हैं तथा पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं। अतः ५४ २ x २ = २० बीस प्रकार का स्थावर और इसके साथ में एक में एक प्रकार का त्रस मिलाकर इक्कीस भेद होते हैं। (२१) पूर्वोदिताः प्रकाश ये एकादश शरीरिणाम् । द्वाविंशति विधाः पर्याप्तान्य भेदात् द्विधा कृताः ॥२२॥ इसके बाईस भेद भी होते हैं । वह इस प्रकार-पूर्वोक्त ग्याहवें श्लोक में इसके ग्यारह भेद समझाये हैं, उनके पर्याप्त और अपर्याप्त इस तरह दो-दो भेद गिनने से ११४२ = २२ बाईस होते हैं। (२२)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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