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________________ (३०७) आठवें, नौवें और दसवें गुण स्थानों में क्षपक श्रेणि में चढ़े को अल्प भी अन्तर नहीं है तथा एक ही बार प्राप्त होने से क्षीण मोह आदि तीन गुण स्थानों में अर्थात् बारहवें, तेरहवें और चौदहवें गुण स्थानों में भी अन्तर नहीं है । (१३०३) इस तरह से गुण स्थानों का स्वरूप सम्पूर्ण हुआ। अथ योगः॥ . दश पंचाधिकायोगाः सप्तस्युस्तत्र कायिकाः । चत्वारो मानसोद्भूतास्तावन्त एव वाचिकाः ॥१३०४॥ योग पंद्रह प्रकार का है । उसमें सात काय के, चार मन के और चार प्रकार के वचन योग हैं। (१३०४) औदारिकस्तनन्मिश्रः स्याद्वैक्रियस्तेन मिश्रितः ।। आहारकस्तन्मिश्रः सप्तमस्तैजस कार्मणः ॥१३०५॥ औदारिक, मिश्र औदारिक, वैक्रिय, मिश्रवैक्रिय, आहारक, मिश्र आहारक . और तैजस कार्मण- इस तरह सात काय योग हैं। (१३०५) । पर्याप्तानां नृतिरश्चामौदारिकाभिधो भवेत् । . स्यात्तन्मिश्रस्तु पर्याप्तापर्याप्तानां तथोच्यते ॥१३०६॥ उसमें पर्याप्त मनुष्य और तिर्यंचों का औदारिक काय योग है, और पर्याप्त तथा :: अपर्याप्तओं को मिश्र औदारिक काय योग कहलाता है। (१३०६) कार्मणेन वैक्रियेणाहार केणेति च त्रिधा । - औदारिक मिश्रकाययोगं योगीश्वरा जगुः ॥१३०७॥ . . मिश्र औदारिक काययोग तीन प्रकार से होता है, १- कार्मण काया से, २- वैक्रिय काया से, ३- आहारक काया से । (१३०७) औदारिकांग नामादितादृक्कर्म नियोगतः ।। उत्पत्तिदेशं प्राप्तेन तिरचा मनुजेन वा ॥१३०८॥ यदौदारिकमारब्धं न च पूर्णीकृतं भवेत् । तावदौदारिक मिश्रः कार्मणेन सह ध्रुवम् ॥१३०६॥ युग्मं। औदारिक शरीर नाम आदि किसी ऐसे कर्म के नियोग से उत्पत्ति देश को प्राप्त हुआ तिर्यंच या मनुष्य औदारिक शरीर का आरंभ करता है । वह शरीर जब
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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