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________________ (२६३) है और उसके बाद अनुक्रम से मिथ्यात्व, मिश्र और समकित मोहनीय का नाश करता है। इस तरह जब सातों का नाश होता है तब से कृतकरण कहलाता है । (१२१६- १२२०) बद्धायुः क्षपक श्रेण्यारम्भक शेनिवर्तते । अनन्तानुबन्धि नाशनन्तरं जीवित क्षयात् ॥१२२१।। तदा मिथ्यात्वोदयेन भूयोऽनन्तानुबन्धिनः । बध्नाति मिथ्यात्व रूपतद्वीजस्या विनाशतः ॥१२२२॥ युग्मं। और बन्धन किए आयुष्य वाला कोई भी प्राणी क्षपक श्रेणि का आरम्भ करते हुए अनन्तानुबन्धी कषायों का विनाश करता है, फिर जीवन का क्षय होने से निवृत्त हुआ तो पुनः मित्थात्व के उदय से अनन्तानुबन्धी कषायों का बन्धन करता है। क्योंकि इसका मित्थात्व रूप बीज अभी भी नष्ट नहीं हुआ है। (१२२११२२२) क्षीणे मिथ्यात्व बीजे तु भूयोऽनन्तानुबन्धिनाम् । न बन्धोऽस्ति क्षितिरूहो बीजे दग्धे हि नांकुरः ॥१२२३॥ मिथ्यात्व बीज क्षीण हो तो उसके बाद अनन्तानुबन्धी कषायों का पुनः बन्धन नहीं होता। बीज जल जाता है तब अंकुर उत्पन्न कहां होता है ? (१२२३) सूरेषूत्पद्यतेऽवश्यं बद्धायुः क्षीण सप्तकः । चेत्तदानीमपतित परिणामो म्रियेत सः ॥१२२४॥ निपतत्परिणामस्तु बद्धायुर्मियते. यदि । गतिमन्यतमां याति स विशुद्धयनुसारतः ॥१२२५॥ पह बन्धन किये आयु-क्षीण सप्तक प्राणी के परिणाम यदि न पड़ें व अखण्ड रहें तो मृत्यु के बाद नि:संशय देवता होता है परन्तु यदि उसके परिणाम पड़ जायें अर्थात् देरी हो जाये-परिणाम खत्म हो जायें तो उस समय की उसकी स्थिति के अनुसार वह अन्य किसी गति में उत्पन्न होता है । (१२२४-१२२५) बद्धायुष्कोऽथाक्षतायः क्षपको म्रियते न चेत । नियमात् सप्तके क्षीणे विश्राम्यति तथाप्यसौ ॥१२२६॥ ___ तथा कोई बन्धन किए आयु वाला तथा अक्षतायु जीव क्षपक होकर मृत्यु न प्राप्त करे फिर भी वह उपर्युक्त सप्तक (सात वस्तुओं के) क्षीण होते ही नियमात विश्राम प्राप्त करता है । (१२२६)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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