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________________ (२७४ ) द्वितीय समये चासावुत्पत्ति देशमापतेत् । तदा तद्भव योग्याणून यथा सम्भवमाहरेत् ॥११११॥ तथा दूसरे समय में वह आत्मा उत्पत्ति प्रदेश में आता है तब वह उस जन्म के योग्य परमाणुओं के यथा संभव आहार करता हैं। (११११) द्विवक्रा तु त्रिसमया मध्यस्तत्र विराहतिः । आद्यन्तयोः समयोराहारः पुनरूक्तवत् ॥ १११२ ॥ द्विवक्र गति तीन समय की होती है और उन तीन समय में से बीच का समय अर्थात् दूसरा समय आहार रहित होता है जबकि पहले और तीसरे समय में पूर्ववत् आहार होता है । (१११२) एवं च त्रिचतुर्वक्रे चतुः पंचक्षणात्मके । मध्यास्तयोर्निराहाराः साहारावादिमान्तिमौ ॥ १११३॥ इसी तरह चार समय वाली और पांच समय वाली त्रिवक्र और चतुर्वक्र: गति में भी बीच का समय निराहार - आहार रहित है और प्रथम तथा अन्तिम समय आहार सहित होता है । (१११३) यदाहुः- इगदुति चउवक्कासु दुगाइ समये सु परभवाहारो । दुगवक्काइसु समया इगदोतिनि उ अणाहारा ॥१११४॥ . अन्य स्थान पर भी कहा है कि एक वक्र वाली, द्विवक्र वाली तथा त्रिवक्रा और चतुर्वक्रा गतियों में अनुक्रम से दूसरे समय, तीसरे समय, चौथे समय व पांचवें समय (क्षण) में पर जन्म का आहार होता है, और द्विवक्रा आदि गतियों में एक, दो और तीन समय में आहार रहित होता है । (१११४) निश्चय नये तु भवस्य भाविनः पूर्वे क्षणे प्राग्वपुषा सह । असम्बन्धादनापत्या च भाविनोऽङ्गस्य नाहृतिः ॥ १११५ ॥ द्वितीय समये तु स्वं स्थानं प्राप्याहरेत्ततः । समयः स्याद नाहार एक वक्रागतावपि ॥१११६ ॥ निश्चय नय के अनुसार कहते हैं- भविष्य में होने वाले जन्म के प्रथम समय में पूर्व शरीर के साथ में सम्बन्ध न होने से और भावी शरीर की अप्राप्ति के कारण आहार नहीं होता । जबकि द्वितीय क्षण में अपना स्थान प्राप्त होने पर आहार करता
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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