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________________ (२२६) योगशास्त्र में प्रथम प्रकाश के सोलहवें श्लोक की वृत्ति में भी कहा है किमनः पर्यव ज्ञान के ऋजुमति और विपुलमति- ये दो भेद हैं । ऋजुमति साधारणतः प्रतिपाति होता है, परन्तु विपुलमति एक बार प्राप्त होने पर कदापि नहीं जाता है। अतः विपुलमति विशेद्ध विशुद्ध है। इस तरह मनः पर्यव ज्ञान का स्वरूप कहा है। के वलं यन्मति ज्ञानाद्यन्य ज्ञानानपेक्ष्णात् । ज्ञेयानन्त्यादनन्तं वा शुद्धं चावरण क्षयात् ॥८६७॥ सकलं वादित एव निःशेषावरण क्षयात् । अनन्य सदृशत्वेनाथवासा धारणं भवेत् ॥८६८॥ भूत भावि भवद् भाव स्वरूपोद्दीपकं स्वतः । तद् ज्ञानं केवल ज्ञानं केवल ज्ञानिभिर्मतम् ॥८६॥ विशेषकं । __ . इति केवल ज्ञानम् ॥ अब पांचवे केवल ज्ञान के विषय में कहते हैं-मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यव- इन चार ज्ञानों की जिसमें अल्पमात्र भी अपेक्षा न हो, जो अकेला ही है, अनन्त पदार्थ जिसमें ज्ञेय हैं इससे वह अनन्त है, आवरणों का क्षय हो जाने से जो विशुद्ध है, पहले से ही सर्व आवरणों का क्षय हो जाने से जो सम्पूर्ण है, इसके .सैमान कोई न होने से जो असाधारण है और भूत-भविष्य और वर्तमान पदार्थों के स्वरूप को जो स्वतः प्रदीप्त करने वाला है, ऐसे ज्ञान को केवल ज्ञानियों ने केवल ज्ञान कहा है। (८६७ से ८६६) इस तरह केवल ज्ञान का स्वरूप है। कृत्सित ज्ञानमज्ञानं कुत्सार्थस्य न ओऽन्वयात् । . कुत्सितत्त्वं तु मिथ्यात्व योगात्त त्रिविधं पुनः ॥८७०॥ मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं विभंग ज्ञानमित्यपि । अथ स्वरूपमेतेषां दर्शयामि यथा श्रुतम् ॥८७१॥ . अब अज्ञान के विषय में कहते हैं- अज्ञान अर्थात् कुत्सित ज्ञान है। क्योंकि अ जो यहां नकार बताता है वह कुत्सित अर्थ में लिया जाता है । यह कुत्सित रूप मिथ्यात्व के योग से होता है। अज्ञान तीन प्रकार का है १- मति अज्ञान, २- श्रुत अज्ञान और ३- विभंगज्ञान । इन तीनों का स्वरूप आगम में कहा है । वह इस तरह कहा है । (८७०-८७१)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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