SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 232
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१६५) है, तथा गुड़ और दही के संयोग से और एक अन्य रस की उत्पत्ति होती है। वैसे ही दो धर्मों पर समान श्रद्धा होने से इसमें से एक अन्य जाति रूप मिश्रभाव उत्पन्न होता है । (१-२) सम्यग्मिथ्यादृशः स्तोकास्तौभ्योऽनन्त गुणाधिकाः। सम्यग्दृशस्ततो मिथ्यादृशोऽनन्त गुणाधिकाः ॥७००॥ इति दृष्टि ॥२४॥ सम्यक् मिथ्या दृष्टि वाले जीवों की संख्या सबसे कम है। सम्यक् दृष्टि वालों की संख्या इससे अनन्त गुना है । इससे भी अनन्ता गुना और मिथ्या दृष्टि जीवों की संख्या है । (७००) इस तरह पच्चीसवां द्वार दृष्टि का स्वरूप सम्पूर्ण हुआ। मति श्रुतावधिमनः पर्यायाण्यथ केवलम् । ज्ञाननिपंच तत्राद्यमष्टा विंशतिधा स्मृतम् ॥७०१॥ ज्ञान के, पांच भेद हैं- १- मति ज्ञान, २- श्रुत ज्ञान, ३- अवधि ज्ञान, ४मनः पर्यव ज्ञान और ५- केवल ज्ञान । उसमें प्रथम मति ज्ञान के अट्ठाईस भेद हैं। (७०१) तथाहि....... अवग्रहेहावायाख्या धारणा चेति तीर्थ पैः । - मति ज्ञानस्य चत्वारो मूलभेदाः प्रकीर्तिता ॥७०२॥ इसमें प्रथम मति ज्ञान के मूल चार भेदं कहे हैं। वें १- अवग्रह, २- इहा, ३अवाय और ४- धारणा हैं । (७०२) शब्दादीनां पदार्थानां प्रथम ग्रहणं हि तत् । अवग्रहः स्यात्स द्वेधा व्यंजनार्थ विभेदतः ॥७०३॥ शब्दादि पदार्थ का जो प्रथम ग्रहण करना उसका नाम अवग्रह है । वह अवग्रह दो प्रकार का है- व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह (७०३) व्यज्यते येन सद्भावा दीपेनेव घटादयः। व्यंजनं ज्ञान जनकं तच्चौपकरणेन्द्रियम् ॥७०४॥ शब्दादि भावमापन्नो द्रव्य संघात एव वा। व्यज्यते यद् व्यंजनं तदिति व्युत्पत्त्यपेक्षया ॥७०५॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy