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________________ (१८३) प्रकार का सम्यकत्व है। यह इसके आवरण कर्म के क्षय आदि से तथा दर्शन मोहनीय के क्षय आदि से होता है।' इसका विवेचन इस तरह: "मत्याद्यावरणीय दर्शनमोहसप्त कक्षयात् उपजातं क्षय सम्यग् दर्शनमभिधीयते । तेषामेवोपशमाज्जातं उपशम सम्यग् दर्शनमुच्यते । तेषामेव क्षयोपशमाभ्यां जातं क्षयोपशम सम्यग् दर्शनमिदधति प्रवचनाभि साः ॥ " 1 जहां तक मिथ्यात्व हो वहां तक मति ज्ञानादि भी नहीं होता है, मति अज्ञानादि होता है । इससे दर्शन मोहनीय कर्म को मति आदि ज्ञान का आवरण भी कहा है। मति आदि का आवरण दर्शन मोहनीय कर्म की सात प्रकृति के क्षय से उत्पन्न होता है । यह क्षायिक सम्यग् दर्शन है । जो इनके उपशम से होता है वह उपशम सम्यक् दर्शन है और जिसमें इसके क्षय और उपशम ये दोनों होते हैं वह क्षयोपशम सम्यग् दर्शन कहलाता है । यह तत्त्वार्थ के प्रथम अध्ययन में कहा है । तत्त्वश्रद्धान जनकं क्षयोपशमिकं यदि । सम्यकत्वस्य क्षायिकस्य कथमावारकं तदा ॥ ६४१ ॥ यदि मिथ्यात्व जातीय तया तदपवारकम् । तदात्मधर्म श्रद्धानं कथमस्मात् प्रवत्तेते ||६४२॥ ननु च यहां कोई शंका करता है कि क्षायोपशमिक सम्यक्त्व जब तत्त्व श्रद्धा को उत्पन्न करने वाला है तब क्षायिकं सम्यकत्व को यह क्यों रोकता है ? यदि आप ऐसा कहोगे कि - यह एक जात का मिथ्यात्व होने से इसे रोकता है तो इससे आत्म धर्म रूप तत्त्व श्रद्धा कैसे प्रकट होती है ? ( ६४१-६४२ ) अत्रोच्यते ...... . यथाश्लक्ष्णाभ्र कान्तः स्था दीपादेद्यतते द्युतिः । तस्मिन् दूरी कृते सर्वात्मना संजृम्भते ऽधिकम् ॥६४३॥ यथा वा मलिनं वस्त्रं भवत्या वारकं मणेः । निर्णिज्योज्वलिते तस्मिन् भाति काचन तत्प्रभा ॥६४४॥ मूलाद्दूरी कृते चास्मिन् सा स्फूटा स्यात्स्वरूपतः । मिथ्यात्व पुद् गलेष्वेवं रसापवर्त्तनादिभिः ॥६४५॥ . क्षायोपशमिकत्वं द्राक् प्राप्तेषु प्रकटी भवेत् । आत्माधर्मात्मकं तत्त्व श्रद्धानं किंचिदस्फूटम् ॥६४६॥ युग्मं । यहां शंका का समाधान करते हैं कि जिस तरह बहुत सूक्ष्म अभ्रक के अन्दर रही दीपक की कान्ति चमकती है और अभ्रक दूर करने से और विशेष
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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