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________________ (११८) वाली हैं। तथा अन्तिम तीन लेश्या अत्यन्त सुवासित, प्रशस्त और निर्मल हैं। इनका स्पर्श स्निग्ध और उष्ण-गरम है और ये शान्ति देने वाली तथा सद्गति में ले जाने वाली हैं । (३१२) परस्परमिमाः प्राप्य यान्ति तद्रूपतामपि । वैदूर्य रक्तपट योज्ञेये तत्र निदर्शने ॥३१३॥ ये लेश्याएं परस्पर एक दूसरे में मिल जाती हैं तब तद्प भी हो जाती हैं। इनके ऊपर वैदूर्य रत्न का और लाल वस्त्र का - इस तरह दो दृष्टान्त कहे हैं। (३१३) तत्रापि- देवनारक लेश्यासु वैदूर्यस्य निदर्शनम् । तिर्यग्मनुजलेश्यासु रक्तवस्त्र निदर्शनम् ॥३१४॥... इसमें भी देवों की और नारकी की लेश्या में वैदूर्यमणि का तथा मनुष्य और तिर्यंचों की लेश्या में रक्तवस्त्र का दृष्टान्त है। (३१४). तथाहि -- देवनारकयोर्लेश्या आभवान्त भवस्थिताः । ... नानाकृतिं यान्ति किन्तु द्रव्यान्तरोपधानतः ॥३१॥ वह इस तरह- देवता और नारकी के जीवों की लेश्या अन्तिम जन्म के अन्त तक अवस्थित रहती है, केवल अन्य द्रव्यों के उपधान संसर्ग से नाना प्रकार की आकृति धारण करती है । (३१५) न तु सर्वात्मना स्वीयं स्वरूपं संत्यजन्ति ताः । सद्वैदूर्य मणिर्यद्वन्नाना सूत्र प्रयोगतः ॥३१६॥ जैसे उत्तम स्फटिक रत्न विविध सूत्र के संसर्ग से भी अपना स्वरूप नहीं बदलता है वैसे ही ये दोनों जीव, देव व नरक की लेश्या अपने स्वरूप नहीं बदलता हैं । (३१६) जपा पुष्पादि सानिध्याद्यथा बादर्श मंडलम् । नाना वर्णान् दधदपि स्वरूपं नोज्झति स्वकम् ॥३१७॥ जैसे अड़हुल के वृक्षपुष्प- जवा कुसुम आदि के सान्निध्य से दर्पण विविध वर्णों को धारण करता हुआ भी अपने मूल स्वरूप का त्याग नही करता है वैसे ही लेश्या भी अपना मूल स्वरूप नहीं छोडती । (३१७) अतएव भावपरावृत्त्या नारक नाकि नोः । भवन्ति लेश्याः षड्पि तदुक्तं पूर्व सूरिभिः ॥३१८॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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