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________________ (१०८) .. इत्याद्यधिकं प्रज्ञापनान्तिम वृत्तितोऽव से यम् ॥ . . . इस तरह होने से जब छः मास आयु शेष रह जाती है तब केवली भगवान् समुद्घात करते हैं । इस प्रकार जो कई कहते हैं वह असत्य है क्योंकि यदि ऐसा हो तो सौंपे पीठ पट्ट का पुनः ग्रहण भी करना का संभव होता है । परन्तु सिद्धान्त में तो केवल उनको सौंपने की ही बात की है । (२५५-२५६) - यह कहा है, इससे विशेष विस्तार जानना हो तो ‘पन्नवणा' सूत्र के अन्तिम पद की टीका में कहा है, वहां से जान लेना चाहिए। ततश्च पर्याप्त संज्ञि पंचाक्ष मनोयोगाजघन्यतः । असंख्य गुणहीनं त निरंधानः क्षणे क्षणे ॥२५७॥ . असंख्ययै क्षणैरेवं साकल्येन रुणद्धि तम् । .. ततः पर्याप्त कद्वयक्ष वचोयोगज घन्यतः ॥२५॥ असंख्य गुणहीनं तं निरूंधानः क्षणे-क्षणे । एवं क्षणैरसंख्येयैः साकल्येन रुणद्धि स ॥२५६॥ विशेषकम्। उसके बाद पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय के मनोयोग से असंख्य गुना कम होते मनोयोग को क्षण क्षण में रूंधते असंख्यात् क्षणों में सर्व मनोयोग का रूंधन होता है। फिर जघन्य से पर्याप्त दो इन्द्रिय के वचन योग से असंख्य गुण कम होते वचन योग का क्षण क्षण रूंधते असंख्यात. क्षणों में सर्व वचन योग का रूंधन होता है । (२५७ से २५६) ततः पर्याप्त सूक्ष्मस्य काय योगाजघन्यतः । असंख्य गुणहीनं तं निरूंधानः क्षणे क्षणे ॥२६०॥ .. असंख्यैः समयैरेवं साकल्येन रुणद्धि सः । योगान् रूंधश्च स ध्यायेत् शुकलध्यान तृतीयकम् ॥२६१॥ (युग्मं।) फिर सूक्ष्म पर्याप्त के कार्य से जघन्यतः असंख्य गुना कम हीन उस कार्य योग को क्षण-क्षण में रोकते हुए असंख्यात क्षणों में सर्व काय योग का निरोध होता है । इस तरह योगों का रोकना शुक्ल ध्यान के तीसरे स्थान में ध्यान होता है । (२६०-२६१) एतेन स उपायेन सर्व योग निरोधतः ।। अयोगतां समासाद्य शैलेशी प्रतिपद्यते ॥२६२॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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