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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ३२९ परिशिष्ट जिनालयों की वन्दना करने के लिये आये।उसी अवसर पर सौधर्मेन्द्र ने स्वर्ग में जयकुमार के परिग्रहपरिमाणव्रत की प्रशंसा की। उसकी परीक्षा करने के लिये रतिप्रभ नाम का देव आया। उसने स्त्री का रूप रख चार स्त्रियों के साथ जयकुमार के समीप जाकर कहा कि सुलोचना के स्वयंवर के समय जिसने तुम्हारे साथ युद्ध किया था उस नमि विद्याधर राजा की रानी को जो कि अत्यन्त रूपवती, नवयौवनवती, समस्त विद्याओं को धारण करने वाली और उससे विरक्तचित्त है, स्वीकृत करो, यदि उसका राज्य और अपना जीवन चाहते हो तो। यह सुनकर जयकुमार ने कहा कि हे सुन्दरि! ऐसा मत कहो, परस्त्री मेरे लिये माता के समान है। तदनन्तर उस स्त्री ने जयकुमार के ऊपर बहुत उपसर्ग किया, परन्तु उसका चित्त विचलित नहीं हुआ। तदनन्तर वह रतिप्रभदेव माया को संकुचित कर, पहले का सब समाचार कहकर प्रशंसा कर और वस्त्र आदि से पूजा कर स्वर्ग चला गया। इस प्रकार पञ्चम अणुव्रत की कथा पूर्ण हुई। १०. रात्रिभोजन त्याग की कथा इस पृथ्वी तल पर एक लाख योजन का जम्बूद्वीप है इस जम्बूद्वीप के दक्षिण दिशा में भरत नाम का क्षेत्र है। इस भरत क्षेत्र के मालव देश की उत्तर दिशा में प्रसिद्ध चित्रकूट नाम का नगर था, उस नगर में जागरिक नाम का एक चण्डाल रहताथा। उसके मातंगिनी नाम की भार्या थी। वह चण्डाल अत्यन्त क्रोधी और पापिष्ट था।एक दिन उस गाँव में एक दयांमूर्ति विषयरूपी वन को नाश करने के लिये हाथी के समान, संसाररूपी समुद्र को सुखाने के लिए दावानल के समान अनेक देशस्थ शिष्यों से शोभित रत्नत्रयधारी दिगम्बर महामुनि का आगमन हुआ। जिस प्रकार बादलों की ध्वनि सुनकर मयूर नाचने लगते हैं उसी प्रकार मुनिरूपी बादलों को देखकर भव्यंजीवरूपी मयूर नाचने लगा। यतिरूपी सूर्य का अवलोकन कर भव्यरूपी कमल विकसित हो गये। सारे नागरिक लोग मुनिराज के दर्शन करने के लिये गये। उनको जाते हुए देखकर यह सब कहाँ जा रहे हैं? आज कौन-सा उत्सव, ऐसा विचार कर जागरिक की भार्या मातंगिनी भी उसके पीछे-पीछे जाने लगी, वृक्ष के नीचे शिला पर बैठे हुए मुनिपुंगव को नमस्कार कर सम्पूर्ण नागरिक लोग मुनिराज के सामने बैठ गये। यतिवर अपनी दन्तावलि की किरणों के द्वारा सभा को प्रकाशित करते हुए धर्मोपदेश करने लगे। अनादिकाल कर्मसंस्कारों के कारण जीव वास्तविक स्वभाव को भूले हुए, अत: यह विषयवासनाजन्य सुखों को ही वास्तविक सुख समझ रहा है। ये विषय सुख भी आरम्भ में बड़े सुन्दर मालूम पड़ते हैं, इनका रूप बड़ा ही लुभावना है, जिसकी भी इन पर दृष्टि पड़ती है वही इनकी ओर आकृष्ट हो जाता है, पर इनका परिणाम हलाहल विष के समान होता है। कहा भी है -
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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