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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२९३) आचार्य वसुनन्दि अर्थ — जिस प्रकार विष्टा का क्रीड़ा विष्टा (टट्टी) में ही प्रीति करता है, उसी प्रकार स्त्री के अपवित्र योनिस्थान से उत्पन्न हुआ कामी पुरुष स्त्री के अमेध्यस्थान में प्रीति करता है। आ. कुन्दकुन्द कहते हैं— लिंगम्मियइत्थीणं थणंतरे णाहिकक्खदेसेसु । भणिओ सुहुमो काओ तासं कह होई पव्वज्जा ।। सू० पा० २४।। अर्थ - स्त्रियों की योनि में, स्तनों के बीच में, नाभि और कांख में सूक्ष्म शरीर के धारक जीव कहे गये हैं, अतः उनकी दीक्षा कैसे हो सकती है ? आ० शुभचन्द्र कहते हैं— मैथुनाचरणे मूढ! म्रियन्ते जन्तुकोटयः । योनिरन्ध्रसंमुत्पन्ना लिङ्गसंघट्टपीडिताः । । ज्ञानार्णव।। आ० वीरसेन कहते हैं— 'घाए घाए असंखेज्जा" (धवला पु० ) अर्थात् प्रत्येक आघात में असंख्यात करोड़ जीव मरते हैं। आ० योगीन्द्र देव ने कहा है जसु हरिणच्छी हियवडए तसु णवि बभु वियारि । एक्कहि केम समंति वढ वे खंडा पडियारि । । प० प्र० १२१ । । अर्थ - जिस पुरुष के चित्त में मृगनयनी विद्यमान है उसके हृदय में ब्रह्मचर्य का विचार नहीं रह सकता क्योंकि अरे वत्स! एक म्यान में दो तलवारें नहीं रहती हैं। स्वामी कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा की टीका में एक श्लोक उद्धृत है— यो न च याति विकारं युवतिजनकटाक्षबाणविद्धोऽपि । स त्वेव शूरशूरो रणशूरो नो भवेच्छूरः ।। अर्थ — जो युवतियों के कटाक्षरूपी बाणों से घायल होने पर भी विकार को प्राप्त नहीं होता वही पुरुष शूरवीरों में शूरवीर है। जो रण के मैदान में शूर है वह सच्चा शूर नहीं है। ब्रह्म यानि आत्मा, आत्मा के लिए जो चर्या की जाती है, उसे ब्रह्मचर्य कहते हैं। इसका अर्थ है कि आत्मा की आत्मा के माध्यम से आत्मा में जो चर्या होती है, उसको ब्रह्मचर्य ऐसा कहते हैं।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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