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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२८२) आचार्य वसुनन्दि चामुण्डराय लिखते हैं किचतुर्दशी दिने तयोर्मध्ये सिद्ध-श्रुत-शान्तिभक्तिर्भवति। (चारित्रसार) अर्थात्- प्रतिदिन देववन्दना के समय चैत्यभक्ति और पंचगुरु भक्ति बोली जाती है। चतुर्दशी के दिन उसके साथ सिद्ध-श्रुत और शान्ति भक्ति बोलनी चाहिये। पं० आशाधर जी ने चतुर्दशी क्रिया में २ मत प्रस्तुत किये हैं। यथात्रिसमय वन्दने भक्तिद्वयमध्ये, श्रुतनुतिं चतुर्दश्याम्। . प्राहुस्तद्रक्तित्रयमुखान्तयोः केऽपि सिद्ध शान्तिनुती। (अनगार धर्मामृत९/४५) अर्थ- त्रिकाल में देव-वन्दना के समय तो नित्य चैत्यभक्ति और पंचगुरु भक्ति की जाती है, परन्तु चतुर्दशी के दिन श्रुतभक्ति करनी चाहिये। अन्य मतानुसार सिद्धभक्ति और शान्तिभक्ति भी बोलनी चाहिये। यदि किसी कारणवशात् क्रिया चतुर्दशी को न कर सकें तो दूसरे दिन करना चाहिये। कहा भी है कि चतुर्दशी क्रिया धर्म व्यासङ्गादिवशान्न चेत्। कर्तुं पायेंत पक्षान्ते तर्हि कार्याष्टमी क्रिया।। (अनगार धर्मामृत, ९/४६) अर्थ- किसी धार्मिक कार्य में फँस जाने के कारण यदि साधु चतुर्दशी की क्रिया न कर सके तो अमावस्या और पूर्णमासी को अष्टमी क्रिया करनी चाहिए। वर्तमान में प्रत्येक क्रिया के उपरान्त समाधिभक्ति करने की परम्परा मुनिसंघों में प्रचलित है।।२८१-२८९।। मध्यम प्रोषधोपवास की विधि जह उक्कस्सं तह मज्झिमं वि पोसहविहाणमुद्दिढ़। णवर विसेसो सलिलं छंडित्ता' वज्जए सेसं ।। २९०।। . मुणिऊण गुरुवकज्जं सावज्जविवज्जियं णियारम्भ। जइ कुणइ तं पि कुज्जा सेसं पुव्वं व णायव्वं ।। २९१।। अन्वयार्थ- (जह उक्कस्स) जिस प्रकार उत्कृष्ट, (पोसहविहाणमुट्ठि) प्रोषधविधान कहा गया है, (तह) उसी प्रकार, (मज्झिमं वि) मध्यम प्रोषध विधान भी जानना चाहिए, (णवर विसेसो) केवल विशेषता (यह है कि), (सलिलं छंडित्ता) जल को छोड़कर, (सेसं वज्जए) शेष का त्याग करना चाहिए, (गुरुवकज्ज) आवश्यक कार्य को, (मुणिऊण) समझकर, (णियारंभं) अपने आरम्भ को, (जइ कुणइ) यदि करना चाहे, (तो) (तं पि कुज्जा) उसे कर सकता है, (किन्तु शेष विधान)
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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