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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२७३) ___आचार्य वसुनन्दि जिणवयण-धम्म-चेइय-परमेट्ठि जिणालयाण णिच्चं पि। जं वंदणं तियालं कीरइ सामाइयं तं खु।। २७५।। अन्वयार्थ- (सई होऊण) शद्ध होकर के, (चेइयगिहम्मि) चैत्य गृह में, (व) अथवा, (सगिहे) अपने ही घर में, (चेइयाहिमुहो). प्रतिमा के सन्मुख होकर, (अथवा), (अण्णत्थ सुइपएसे) अन्य पवित्र स्थान में, (पुव्वमुहो) पूर्वमुख, (वा) अथवा, (उत्तरमुहो) उत्तरमुख होकर, (जिणवयण) जिनवाणी, (धम्म) धर्म, (चेइय) चैत्य, (परमेट्ठी) पंचपरमेष्ठी, (जिणालयाण) जिनालयों की, (ज) जो, (णिच्चं) नित्य, (तियालं) त्रिकाल, (वंदणं कीरइ) वंदना की जाती है, (तं) वह, (खु) निश्चय से, (सामाइय) सामायिक है। . अर्थ- स्नानादिक से शुद्ध होकर मन्दिर में अथवा अपने ही गृह चैत्यालय में भगवान के अभिमुख होकर अथवा अन्य पवित्र स्थान में पूर्व या उत्तरमुख होकर जो जिनवाणी, जिनधर्म, जिनबिम्ब (प्रतिमा), पंचपरमेष्ठी और जिनालयों (मन्दिर, क्षेत्र) की जो नित्य त्रिकाल वन्दना की जाती है वह तीसरा सामायिक नामक स्थान है। व्याख्या- सामायिक के लिए योग्यस्थान का निर्णय करते हुए आ० समन्तभद्र कहते हैं- . - एकान्ते सामयिकं नियाक्षेपे वनेषु वास्तुषु च। चैत्यालयेषु वापि परिचेतव्यं प्रसन्नधिया।।रत्न० श्रा० ९९।। . अर्थ- चित्त को चंचल करने वाले कारणों से रहित एकान्त स्थान, जैसेवन, मकान या चैत्यालय में प्रसन्न मन से सामायिक करना चाहिए। उन्होंने समय निर्णय करते हुए तत्कालीन सांकेतिक संकल्पों को दर्शाया है मूर्धरुहमुष्टिवासो बन्धन पर्यङ्कबन्धनं चापि। स्थानमुपवेसनं वा समयं जानन्ति समयज्ञाः।।१८।। अर्थ- केशों का बंध, मट्ठी का बन्ध, वस्त्र का बन्ध, पालथी बन्ध, स्थान और बैठने को समय के ज्ञाताओं ने समय कहा है। अर्थात् सामायिक में ये सब आवश्यक होते हैं। वे सामायिक के माहात्म्य को स्पष्ट करते हुए कहते हैंसामयिके सारम्भाः परिग्रहा नैव सन्ति सर्वेऽपि। चेलोपसृष्ट मुनिरिव गृही तदा याति यतिभावम्।।१०२।।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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