SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 371
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२५५) आचार्य वसुनन्दि अन्वयार्थ– (जोइदुमा) ज्योतिरंग जाति के कल्पवृक्ष, (ससि-सूरपयासओ) चन्द्र-सूर्य के प्रकाश से, (अहियपयास) अधिक प्रकाश को, (कुणंति) करते हैं, (गिहदुमा) गृहांगजाति के कल्पवृक्ष, (सया) सदा, (णाणाविहदिव्वपासाए) नाना प्रकार के दिव्य प्रासादों को, (दिति) देते हैं। . भावार्थ- ज्योतिरंग जाति के कल्पवृक्ष मध्यदिन के करोड़ों सूर्यों की तरह होते हुए नक्षत्र, सूर्य और चन्द्र आदि की कान्ति का संहरण करते हैं अर्थात् उन वृक्षों से इतना तेज प्रकाश निकलता है जिसके सामने सूर्य-चन्द्र का आभास तक मालूम नहीं पड़ता। ये वृक्ष हमेशा प्रकाशमान रहते है, अत: वहाँ कभी रात और दिन में भेद मालम नहीं पड़ता। गृहांग जाति के कल्पवृक्ष स्वस्तिक, नंद्यावर्त आदि सोलह प्रकार के विशाल-विशाल दिव्य भवनों (प्रासादों) को प्रदान करते हैं।।२५४।। भाजनांग और दीपांग जाति के कल्पवृक्ष कच्चोल-कलस-थालाइयाई, भायणदुमा पयच्छति। उज्जोयं दीवदुमा कुणंति गेहस्स मज्झम्मि।। २५५।। अन्वयार्थ-(भायणदुमा) भाजनांग कल्पवृक्ष, (कच्चोल-कलस-थालाइयाई) वाटकी, कलश, थाली आदि को (पयच्छंति) देते हैं। (दीवदुमा) दीपांग कल्पवृक्ष, (गेहस्स मज्झम्मि) घर के मध्य (भीतर), (उज्जोवं) प्रकाश, (कुणंति) करते हैं। ___ भावार्थ- भाजनांग कल्पवृक्ष सुवर्ण-रजत आदि से निर्मित झारी, कलश, गागर, चामर, आसन, पलंग आदि देते हैं। दीपांग जाति के कल्पवृक्ष घर के भीतर प्रकाश करने के लिए शाखा, प्रवाल, फल-फूल और अंकुरादि के द्वारा जलते हुए दीपकों के समान प्रकाश को देते हैं।।२५५।। .. . वस्त्रांग और भोजनांग जाति के कल्पवृक्ष - वर- पट्ट-चीण-खोमाइयाई वत्थाई दिति नत्थदुमा। वर-चउविहमाहारं भोयणरुक्खा पयच्छंति ।। २५६ ।। - अन्वयार्थ– (वत्थदुमा) वस्त्रांग कल्पवृक्ष, (वर-पट्ट-चीण-खोमाइयाइं) उत्तम रेशमी, चीनी और कोशे आदि के, (वत्थाई) वस्त्रों को, (दिति) देते हैं, (भोयणरुक्खा ) भोजनांग कल्पवृक्ष, (वर-चउविहमाहारं) उत्तम चार प्रकार के आहार को, (पयच्छंति) प्रदान करते हैं। भावार्थ- वस्त्रांग जाति के कल्पवृक्ष उत्तम रेशमी (विशुद्ध), चीनी और कोशे १. ब. कंचोल..
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy