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________________ (वसुनन्दि- श्रावकाचार (११०) आचार्य वसुनन्दि और भी भयङ्कर-भयङ्कर दुःख वेश्या सेवी को भोगना पड़ते है। अत: मन, वचन, काय से वेश्यागमन का त्याग करना चाहिये । व्याख्या– वेश्या मांस खाती है, मद्य पीती है, झूठ बोलती है, केवल धन के लिए प्रेम करती है, नीच से नीच पुरुष उन्हें भोगता है। इसीलिए शास्त्रकारों ने उन्हें धोबियों के कपड़ा धोने के पत्थर की उपमा दी है। जैसे धोबे के पत्थर पर सभी प्रकार के कपड़े धोए जाते हैं, वही स्थिति वेश्या की है। जिसने वेश्या सेवन का त्याग किया है वह गाने बजाने और नाच आदि आसक्ति, बिना प्रयोजन बाजारों में घूमना, व्यभिचारी पुरुषों की संगति तथा वेश्या के घर आना-जाना, उसके साथ वार्तालाप करना, उसका आदर-सत्कार भी सदा के लिए छोड़ना चाहिए। वेश्यागमन करने से ब्रह्मचर्य भावना का घात होता है, वेश्यागमन अनीति की मूल है, इहलोक, परलोक में दु:खदायी है। वेश्या को पण्य-स्त्री कहते हैं। वे स्त्रियाँ रुपया लेकर अपने शील को पर पुरुष बेचती हैं। रुपया के लोभ से वे रोगी, पापी, हीन, दीन व्यक्तियों के साथ भी भोग करती है जिससे उसकी योनी में अनेक संक्रामक रोग होते है जिससे उनके साथ जो भोग करता है उनको भयंकर सुजाक, गर्मी आदि संक्रामक रोग हो जाते हैं जिससे लिंग में मरण प्रायः तीव्र वेदना होती है। वह जार पुरुष लज्जा के कारण किसी को उस रोग के बारे में नहीं बताता है जिससे उसका इलाज होना भी कठिन हो जाता है इस प्रकार जार पुरुष रुपया देकर रोगों को खरीदता है । जार पुरुष को सब कोई हीन दृष्टि से देखते हैं । वेश्या में आशक्त होकर अपनी सारी सम्पत्ति दे डालता है जिससे वह निर्धन हो जाता है और परिवार जन कष्ट उठाते हैं। तद्भव मोक्षगामी स्वाध्याय प्रेमी, ज्ञानी चारुदत्त जो कि विवाह के पश्चात् भी अपनी नव युवती सुन्दरी स्त्री को देखता तक नहीं था वही चारुदत्त वसन्तसेना वेश्या के कारण १२ वर्ष तक वेश्या के घर में रहा और ३२ लाख स्वर्ण दीनार खो डाली एवं अंत 'सण्डासगृह में उसे डलवा दिया गया। इस प्रकार धन, यौवन, धर्म, स्वास्थ्य, शील आदि को नाश करने वाले वेश्यागमन का त्याग करना चाहिये । में " महान दुःख की बात है कि कुछ प्रादेशिक सरकार वेश्यावृत्ति को बढ़ावा देने के लिये वेश्याओं को लायसेंस दे रही हैं जिससे बाम्बे, पूना आदि महानगरी में वेश्याओं की संख्या खूब बढ़ रही है, परन्तु विवेकी सरकार तथा जनता को चाहिये कि इसका शक्त विरोध एवं निषेध करे जिससे देश में शील, न्याय नीति कायम रहेगी।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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