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________________ २१ श्री गुणानुरागकुलकम् उन पर प्रमोद धारण करता है, उसके बराबर दूसरा कोई कृतपुण्य और पवित्रात्मा नहीं है। मत्सरी मनुष्य परगुण ग्रहण करने की सीमा तक नहीं पहुँच सकता, इससे उस मत्सरी के हृदय में गुणों पर अनुराग नहीं उत्पन्न होता। अतएव जिन पुरुषों के हृदय-भवन में यथार्थ गुणानुराग बना रहता है, उनकी इन्द्रभवन में भी स्तुति की जाती है और उन (गुणानुरागी) को सब कोई नमस्कार किया करते हैं। महात्मा भर्तृहरि ने लिखा है कि - वाञ्छा सज्जनसङ्गमे परगुणे प्रीतिर्मुरौ नम्रता, विद्यायां व्यसनं स्वयोषिति रतिर्लोकापवादाभ्दयम्। भक्तिः स्वामिनि शक्तिरात्मदमने संसर्गमुक्तिः खलेवेते येषु वसन्ति निर्मलगुणास्तेभ्यो नरेभ्यो नमः। ___ भावार्थ - सज्जनों के समागम में वाँछा, दूसरों के सद्गुणों पर प्रीति, गुरुवर्य में नम्रता, विद्या में व्यसन, अपनी स्त्री में रति ?, लोकापवाद से भय, अपने स्वामी में भक्ति, आत्मदमन करने में शक्ति, खल (दुर्जन) लोगों के सहवास का त्याग, ये निर्मल आठ गुण जिन पुरुषों में निवास करते हैं। उन भाग्यशाली मनुष्यों के लिये नमस्कार है। अर्थात् - इन आठ गुणों से अलङ्कत मनुष्य नमस्कार और पूजा करने योग्य है। तात्पर्य यह है कि - सर्वत्र गुणानुरागी . की ही पूजा होती है और उसी का जीवन कृतार्थ (सफल) समझा जाता है। . जन्म जरा मृत्यु आदि दुःखों से पीड़ित इस संसार में प्रत्येक मनुष्य स्वप्रशंसा, स्वहित, अथवा लोकोपकारार्थ हर एक गुण को धारण करते हैं, अर्थात् - हमारी प्रशंसा बढ़ेगी, सब कोई हमें १. गृहस्थ की अपेक्षा स्वदार सन्तोष वृत में रति और साधु की अपेक्षा - सुमति रूप रमणी में रति।
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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