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________________ १० श्री गुणानुरागकुलकम् रागद्वेषौ यदि स्यातां, तपसा किं प्रयोजनम् । रागद्वेषौ तु न स्यातां, तपसा किं प्रयोजनम् ॥१॥ भावार्थ - इस आत्मा में यदि राग और द्वेष ये दो दोष स्थित हैं तो फिर तपस्या करने से क्या लाभ हो सकता है? अथवा यदि राग और द्वेष ये दो दोष नहीं हैं तो तपस्या करने से क्या प्रयोजन है? जीव को संसार में परिभ्रमण कराने वाले तथा नानाविध दुःख देने वाले राग और द्वेष ही हैं। इसलिये इन्हीं को नष्ट करने के निमित्त तमाम धार्मिक क्रिया अनुष्ठान (तपस्या, पठन, पाठनादि) किया जाता है। परन्तु जिन के हृदय से ये दो दोष अलग नहीं हुए, वे चाहे कितनी ही तपस्या आदि क्रिया करें, किन्तु द्वेषाग्नि से वे सब भस्म हो जाती हैं अर्थात् - उनका ,यथार्थ फल प्राप्त नहीं हो. सकता। द्वेषी मनुष्य के साथ कोई प्राणी प्रीति करना नहीं चाहता, और न कोई उसको कुछ सिखाता-पढ़ाता है अगर किसी तरह वह कुछ सीख भी गया तो द्वेषावेश से सीखा हुआ नष्ट हो जाता है। क्योंकि द्वेषी मनुष्य सदा अविवेकशील बना रहता है, इससे वह पूज्य पुरुषों का यथेष्ट विनय नहीं कर सकता, और न उनसे कुछ गुण ही प्राप्त कर सकता है यदि कोई उपकारी महात्मा उसको कुछ सिखावे भी तो वह सिखाना उसके लिये उषरभूमिवत् निष्फल ही है। कहा भी है किउपदेशो ही मूर्खाणां, प्रकोपाय न शान्तये। पयःपानं भुजङ्गाना, केवलं विषवर्द्धनम् ॥१॥ भावार्थ - मूर्ख लोगों (द्वेषी मनुष्यों) को जो उपदेश देना है वह केवल कोप बढ़ाने वाला ही है, किन्तु शान्तिकारक नहीं है। जैसे - सर्पो को दूध का पान कराना केवल विष (जहर) बढ़ाने वाला ही होता है।
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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