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________________ २३४ श्री गुणानुरागकुलकम् १३. कठोर बातें बोलना, दूसरों के अनिष्ट साधन में प्रवृत्त होना, निर्दयता का काम करना और अहंकार दिखलाना अशिष्टता है, इसमें कोई सन्देह नहीं। अयुक्त रीति से जो शिष्टता दिखलाई जाती है उसे भी लोग निंदनीय समझते हैं। १४. दृढ़प्रतिज्ञा, अध्यवसाय, आत्मवश्यता और उद्योगपरता से मनुष्य क्या नहीं कर सकता। जब तुम बराबर परिश्रम करते. रहोगे, तब जो काम तुम्हें आज असाध्य जान पड़ता है वह कल सुसाध्य (सहल) जान पड़ेगा। १५. दूसरे की उन्नति देखकर हृदय में विद्वेष भाव का उदय होना अत्यन्त गर्हित है। जो उच्च हृदय के मनुष्य हैं उनके हृदय में ऐसा विद्वेष कभी उत्पन्न नहीं होता। वे गुण का ग्रहण करते हैं, दोषों का त्याग करते हैं और जिससे उन्हें कल्याण की आशा होती है उसका आदर करते हैं और जिससे अमंगल होने की संभावना होती है, उससे विरत रहते हैं। महान पुरुषों का यही वास्तविक कर्तव्य है। १६. जो स्वार्थ की रक्षा करते हुए यथासाध्य दूसरे का उपकार करते हैं, वे उन स्वार्थियों से अच्छे हैं जो दिन रात अपने ही लिए हाय हाय करते रहते हैं। संसार के लोग भले ही दुःखी हों पर मेरा अभीष्ट सिद्ध हो इस प्रकार की स्वार्थता बड़ी ही निन्द्य और त्याज्य है। . १७.कोई एक ऐसा स्वार्थ है जिससे तुम लाभ उठा रहे हो और हजारों की हानि हो रही है, वहाँ तुम्हें स्वार्थ त्याग देना ही समुचित है। वह सुख किस काम का जो हजारों के मन में दुःख पहुँचा कर प्राप्त हो। जिनका हृदय उच्च है, जो सब के साथ उच्च
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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