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________________ श्री गुणानुरागकुलकम् १२३ की परीक्षा नहीं हो सकती। कर्तव्य क्या है? अकर्तव्य क्या है? सत्य क्या है?, असत्य क्या है?, जीव क्या है?, कर्म क्या है? इत्यादि बातों का निर्णय ज्ञान के बिना नहीं हो सकता, और स्वधर्म तथा परधर्म का स्वरूप भी नहीं मालूम नहीं हो सकता, अतः ज्ञान संपादन अवश्य करना चाहिए। लिखा भी है कि - भवविटपिस मूलोन्मूलने मत्तदन्ती, जडिमतिमिरनाशे पधिनीप्राणनाथः । नयनमपरमेतद् विश्वतत्त्वप्रकाशे, . . करणहरिणबन्धे वागुरा ज्ञानमेव ॥१॥ . भावार्थ - भवरूप वृक्ष को समूल उखाड़ने में मदोन्मत्त हस्तीसमान, मूर्खतारूप अन्धकार को नाश करने में सूर्य के सदृश, समस्त जगत के तत्त्वों को प्रकाश करने में तीसरे नेत्र के तुल्य और इन्द्रियरूप हरिणों को वश करने में पाश जाल की तुलना रखने वाला एक ज्ञान ही है। . अज्ञानी, परापवाद, मद, मात्सर्यादि दोषों में पड़कर अधमता को प्राप्त करता है, और ज्ञानी सद्मार्ग का उपदेश देकर और राग द्वेषादि दोषों को हटाकर उत्तमता को प्राप्त करता है। सांसारिक और धार्मिक योजनाओं में विद्वान पुरुष जितना महत्व और यश प्राप्त करता है उतना मूर्ख हजारों रुपया खर्च करके भी प्राप्त नहीं कर सकता। इसी से महर्षियों ने सद्ज्ञान को प्राप्त करने की परमावश्यकता बतलाई है। - ज्ञान बिना जीवादि पदार्थों का स्वरूप सामान्य तथा विशेष रूप से नहीं जाना जा सकता, और जीवादि स्वरूप जाने बिना दयाधर्म का पालन भले प्रकार नहीं हो सकता। 'श्रीदशवैकालिसूत्र' में श्री
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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