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________________ १०३ श्री गुणानुरागकुलकम् योग्यता पाकर अहंकार के वशीभूत हो जाते हैं। परन्तु यह नहीं सोचते कि - सवैया ३१ सा - केई केइ बेर भये भूपर प्रचण्ड - भूप, बड़े-बड़े भूपन के देश छीन लीने हैं। केई केई बेर भये सुरभोनवासी देव, केई केइ बेर निवास नरक कीने हैं। केई केइ बेर भये कीट मलमूत माहीं, ऐसी गति नीच बीच सुख मान भीने हैं. कौड़ी के अनंत भाग आपन विकाय चुके, गर्व कहा करे मूढ! देख दृग दीने हैं ॥१॥ .: भावार्थ - अनन्त दुःखदावानलसन्तप्त इस संसार में कई बार ये सकर्मी प्राणीगण प्रभावशाली राजा हो चुके हैं और अनेक समय राजाओं के देश छीनकर चक्रवर्ती राजा बन चुके हैं तथा कई बार चारों निकाय के उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ देवों में उपज चुके हैं, एवं कई बार नरक गति में पैदा होकर असह्य दुःख सहन कर चुके हैं। इसी प्रकार कई बार मलमूत्र कर्दम आदि के मध्य में कीट योनि में उत्पन्न हो चुके हैं, कई बार अति निन्दनीय गतियों में निवास कर नाना दुःखों का अनुभव होने पर भी सुख मानकर रह चुके हैं, और कई बार चौरासी लक्ष जीवयोनीरूप चौवटा के बीच में कौड़ी के अनन्त वें भाग में बिक चुके हैं। इसलिए हे महानुभावों! जरा दृष्टि देकर विचारो कि अब मद किस पर किया जावे, क्योंकि हरएक प्राणी की पूर्वावस्था तो इस प्रकार की हो चुकी है तो ऐसी दशा में गर्व करना नितान्तं अयुक्त है और तीनों काल में इससे फायदा न हुआ और न ही होगा। देखो संसार में
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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