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________________ ८८ श्री गुणानुरागकुलकम् संतोष नहीं हुआ। इसी सोच-विचार में वह रानी सुविद्या के राजभवन में चला गया। रानी ने यथोचित आदर-सत्कार करके हाव-भाव कटाक्ष से सदैव की भाँति राजा के मन को प्रसन्न करना चाहा। पर राजा को उदासीन और किसी विचार में निमग्न जान, वह कारण पूछने लगी। राजा ने टालाटूल की, पर रानी ने हठ करके पूछ ही लिया और राजा ने सब वृत्तान्त कह सुनाया। रानी ने उत्तर.. दिया कि यह तो अति सहल बात है। उसके घर में उसकी स्त्री मूर्ख और फूहर होगी, जिस कारण वह निर्धन रहता है। ऐसा उत्तर रानी के मुख से सुनकर राजा को क्रोध आ गया कि इस रानी को अपनी गृहदक्षता का गर्व है कि मेरा राजपाट भी सब इसी के बुद्धिबल से है। ऐसी ठान, रानी को एकदम देश निकाला दे दिया। इसमें कोई संदेह न करे, राजाओं की ऐसी ही दशा होती है। कहा भी है कि - राजा योगी अग्नि जल, इनकी उलटी रीति। जो इनके नियरे वसे, थोड़ी पालें प्रीति ॥१॥ __रानी ने भी ठान ली कि अब चलकर उसी कठियारे के यहाँ रहूँगी और राजा को अपने वचन का परिचय दिखाऊँगी। ऐसा विचार कर वह उसी कठियारे के घर चल दी। जब वहाँ पहुँची, तो उससे निवेदन कर कहने लगी कि हे पिता ! तू मुझे अपने यहाँ रख ले। तेरी टहल (चाकरी) कर दिया करूँगी। जो कुछ मिस्सा-कुस्सा, रुखा-सुखा होगा, खा लिया करूँगी। यह कहते-कहते उसके संग झट से लकड़ी बिनवाने लग गई। लकड़हारा बोला कि - हम आप एकादशी करते हैं। जिस दिन लकड़ी बिक जाती है, उस दिन आधी परधी रोटी मिल भी जाती है। जिस दिन नहीं बिकती, उस दिन तों घर के मूसे भी एकादशी ही करते हैं।
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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