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________________ ७१ श्री गुणानुरागकुलकम् ब्राह्मण सेठजी से मिलने के लिए दो तीन दिन तक भूखा बैठा रहा, सेठजी को खबर हुई कि ब्राह्मण केवल मुझसे मिलने के निमित्त ही भूखा मर रहा है। अन्त में सेठ ने बाहर आकर कहा कि - हे ब्राह्मण! बोलो क्या काम है? मुझे तो भोजन करने का भी अवकाश नहीं है, तथापि तुम्हारे आग्रह से आना पड़ा है। सेठ के वचनों को सुनकर ब्राह्मण तो समझ गया, परन्तु विशेष स्पष्ट करने के लिए कहा कि - मेरे उपर एक महात्मा प्रसन्न हुए हैं और वे मेरी इच्छा के अनुकूल सुख देने को तैयार हैं किन्तु प्रथम सुखानुभव कर सुख माँगने का मैंने इरादा किया है। इसलिए बतलाइये कि “आप सुखी हैं या दुःखी? अगर आप सुखी हों तो मैं महात्मा से आपके समान सुख माँगलूं।" सेठ ने कहा कि - अरे महाराज ! मैं महा दुःखी हूँ, मुझे खाने पीने या सुखपूर्वक क्षणभर बैठने तक का समय नहीं 'है, यदि मेरे समान सुख माँगोगे तो आप महादुःखी हो जाओगे, अतएव भूलकरके भी मेरे समान सुखी होने की याचना मत करना। बस, इस प्रकार सुनते ही तो ब्राह्मण अन्यत्र सुखानुभव करने की आशा से निराश हो विचारने लगा कि - .. वस्तुगत्या संसार में महात्माओं के सिवाय दूसरा कोई मनुष्य सुखी नहीं दिख पड़ता। क्योंकि संसार जाल महाभयंकर है, इसमें मग्न होकर, सुखी होने की अभिलाषा रखना सर्वथा भूल है। मनुष्य जबतक धन, स्त्री, पुत्र, क्षेत्र आदि की चिन्ता में निमग्न हो इधर उधर भटकता रहता है, तब तक अनुपम आनन्ददायक और सब दोषों से रहित मोक्ष स्थान का अधिकारी ही नहीं बन सकता।
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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