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________________ अरिहंत की आवश्यकता-वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में ४१ का प्रसार हो जाता है। परमात्मा अल्फाकणों के सुपर प्लाट या Power House होते हैं। परमात्मा की पवित्र देह रश्मियों के रूप में ऊर्जान्वित ये अल्फाकण अनुकूल वायु के द्वारा योजनों तक फैलते हैं, परिणामतः परमात्मा के आस-पास योजनों विस्तार में मार, मरकी, इति, मारि, लड़ाई आदि दूषित प्रवृत्तियां नहीं होती हैं। इतना ही नहीं, उनके सान्निध्य में आने वाले जन्मजात वैरी भी एक दूसरे के स्नेही बन जाते हैं। जिसे हम अतिशय कहते हैं; परमात्मा के शुभ भावों का दक्षिणावर्त विस्तार ही तो है। चैत्यवृक्ष और सिंहासन को प्रदक्षिणा देने के सम्बन्ध में प्रश्न यह है कि परमात्मा को समोसरण में चैत्यवृक्ष और सिंहासन को प्रदक्षिणा देने की क्या आवश्यकता है? जब कि वे न तो स्वयं में परिवर्तन करना चाहते हैं और न ही अन्य के परिवर्तन की इच्छा करते हैं। उनसे सहज ही सबकुछ होता रहता है। इसका समाधान यही है कि प्रभु के द्वारा प्रदक्षिणा देने से आसपास का करीब-करीब हजार योजन का वायु-मंडल परिशुद्ध हो जाता है। मार, मरकी, लड़ाई, झगड़ा, वैर, वैमनस्य समाप्त हो जाते हैं। यही तो कारण है कि समोसरण में आने वाले बिल्ली-चूहे या हरिण-शेर भी एक दूसरे के दुश्मन नहीं रहकर, मित्र बन जाते हैं। समवसरण में एक साथ बैठकर परमात्मा के पावन प्रवचनों का पान करते हैं। अल्फा कणों का विस्तार। रासायनिक परिवर्तन का सिद्धांत बन जाता है। आज भी विज्ञान इलेक्ट्रोनिक यंत्र द्वारा चहे और बिल्ली पर प्रयोग कर रासायनिक परिवर्तन करते हैं। इस प्रयोग से चूहे में बिल्ली की और बिल्ली में चूहे की वृत्ति प्रकट कर सकते हैं। इस प्रक्रिया में बिल्ली शांत रहती है और चूहा बिल्ली के ऊपर आक्रमण करता है। प्रभु के विस्तृत अल्फा कण समस्त सृष्टि के प्राणी जगत का वैर समाप्त कर देते हैं। इसमें उनको कुछ करना नहीं होता लेकिन उनके परम औदारिक अनुपम देह से निकली हुई कैवल्य रश्मियों के वर्तुलाकार आभामंडल का यह प्रभाव है। ___ अध्यात्म मार्ग में नमस्कार मुद्रा, वंदना, प्रदक्षिणा आदि प्रक्रियाएँ वृत्त परिवर्तन द्वारा वृत्ति परिवर्तन के माध्यम हैं। इसी कारण वंदना से पूर्व दोनों हाथों को दक्षिणावर्त घुमाकर फिर पंचांग नमाने के विधान के पीछे महत्त्वपूर्ण कारण वृत्ति परिवर्तन भी रहा था। गुरु, परमात्मा या परम पुरुष के पास आने से पूर्व व्यक्ति में रही हुई दूषित वृत्तियाँ जो कि उत्तरावर्त होती हैं, उनमें परिवर्तन करने के लिए, उस पवित्र वातावरण में प्रवेश करने के पूर्व यह प्रक्रिया तीन बार दोहराई जाती है। ऐसा करने से दूषित वृत्तियां समाप्त होती हैं और पवित्र वातावरण की शुभ वृत्तियां सम्पादित होती हैं। आज भी तिक्खुत्तो के पाठ से “आयाहिणं-पयाहिणं" द्वारा वन्दना, नमस्कार का प्रस्तुत ध्येय परंपरा में काफी प्रचलित है। अरिहंत परमात्मा द्वारा वृत्ति परिवर्तन का यह सिद्धांत उनकी अनोखी और अपूर्व देन है। यह आध्यात्मिक होने के साथ-साथ वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक भी मानी जाती
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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