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________________ अरिहंत का तत्त्व बोध २५ ईश्वर के तीन रूप सामान्य रूप से सभी दर्शन ईश्वर को मानते हैं, किन्तु सैद्धान्तिक और साम्प्रदायिक दृष्टि से ईश्वर-सम्बन्धी मान्यता में वे यत्किंचित् मतभेद रखते हैं, इसी मतभेद को लेकर ईश्वर के सम्बन्ध में तीन विचारधाराएं उत्पन्न हुई हैं। वे विचारधाराएं संक्षेप में इस प्रकार हैं : (१) ईश्वर एक है, अनादि है, सर्वव्यापक है, सच्चिदानन्द है, घट-घट का ज्ञाता है, सर्वशक्तिमान है, जगत का निर्माता है, भाग्य का विधाता है, कर्मफल का प्रदाता है। संसार में जो कुछ होता है, वह सब ईश्वर के संकेत से होता है। ईश्वर पापियों का नाश करने के लिए तथा धार्मिक लोगों का उद्धार करने के लिए कभी न कभी किसी न किसी रूप में संसार में जन्म लेता है, वैकुण्ठ से नीचे उतरता है और अपनी लीला दिखाकर पुनः वैकुण्ठ धाम में जा विराजता है। ईश्वर का यह एक रूप है जिसे आज हमारे सनातनधर्मी भाई मानते हैं। ईश्वर का दूसरा रूप इस प्रकार है (२) ईश्वर एक है, अनादि है, सर्वव्यापक है, सच्चिदानन्द है, घट-घट का ज्ञाता है, सर्वशक्तिमान है, संसार का निर्माता है। जीव कर्म करने में स्वतंत्र है, उस में ईश्वर का कोई हस्तक्षेप नहीं है। जीव अच्छा या बुरा जैसा भी कर्म करना चाहे कर सकता है, यह उसकी इच्छा की बात है। ईश्वर का उस पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है किन्तु जीवों को उनके कर्मों का फल ईश्वर देता है। अपनी लीला दिखाने के लिए, पापियों का नाश करने के लिए और धर्मियों का उद्धार करने के लिए ईश्वर अवतार धारण नहीं करता है-भगवान मनुष्य या पशु के रूप में जन्म नहीं लेता है। ईश्वर का यह दूसरा रूप हुआ, जिसे आर्य समाज मानता है। ईश्वर का तीसरा रूप इस प्रकार है. (३) ईश्वर एक नहीं है, व्यक्तिशः अनेक है। अनादि नहीं है, अनन्त शक्तिमान् है, घट-घट का ज्ञाता है, द्रष्टा है, जगत् का निर्माता नहीं है, भाग्य का विधाता नहीं है, कर्मफल प्रदाता नहीं है, अवतार लेकर संसार में आता नहीं है। जीव कर्म करने में स्वतंत्र है, जीवकृत कर्म के साथ ईश्वर का प्रत्यक्ष या परोक्ष कोई सम्बन्ध नहीं है। जीव की उन्नति या अवनति में ईश्वर का कोई हस्तक्षेप नहीं है। अहिंसा, संयम और तप की त्रिवेणी में विशुद्ध मनसा; वाचा और कर्मणा से गोते लगाने वाला व्यक्ति निष्कर्मता को प्राप्त करके ईश्वर बन जाता है। ईश्वर और जीव में केवल कर्म-गत् अन्तर है। कर्म की दीवार जब हट जाती है तब जीव में और ईश्वर में स्वरूपकृत कोई अन्तर नहीं रह जाता है, जीव ईश्वर स्वरूप ही बन जाता है। यह ईश्वर का तीसरा रूप है, जिसे जैन स्वीकार करते हैं।
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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