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________________ ...................................................... २२ अरिहंत-शब्द दर्शन होना। तात्पर्य यह है कि साकार परमात्मा विशुद्ध परमाणु पुंज वाले हैं तथा हम (आराधक) कर्म युक्त अशुद्ध परमाणु वाले हैं। अतः परमात्मा वीतराग से परम अनुराग कर उनकी परम विशुद्धि की स्तुति एवं चिन्तन करने से स्वयं की अशुद्धियों की पहचान होने लगती है और इनसे (अशुद्धियों से) धीरे-धीरे यह आत्मा अलग होता हुआ एक दिन स्वयं परमात्मा बन जाता है। विशुद्धि का ध्यान किये बिना अशुद्धियों का ख्याल नहीं आता है। परमाराध्य परम विशुद्धि वाले होने से उनका ध्यान किये बिना आत्मा परमात्मा नहीं बन सकता है। ___ इस प्रकार जैन दर्शन में अरिहंत परमात्मा को जगत् कर्ता या सर्वनियन्ता नहीं माना जाता है। परन्तु साधक आत्मा परमाराध्य की आराधना करके स्वयं अपनी .. अशुद्धियों को समझकर दूर करता है, और आराधना से उत्पन्न पुण्य-प्रभाव से इप्सित प्राप्त करता है। वैदिक-परम्परा में ईश्वर शब्द ईश्वर शब्द वैदिक दर्शन का अपना एक पारिभाषिक शब्द है। वैदिक दर्शन के अनुसार उस महाशक्ति का नाम ईश्वर है, जो इस जगत् की निर्मात्री है, एक है, सर्वव्यापक और नित्य है। वैदिक दर्शन का विश्वास है कि संसार के कार्यक्रम को चलाने की बागडोर ईश्वर के हाथ में है, संसार के समस्त स्पन्दन उसी की प्रेरणा से हो रहे हैं। वैदिक दर्शन कहता है कि ईश्वर सर्वशक्तिमान है, वह जो चाहे कर सकता है। कर्तव्य को अकर्तव्य और अकर्तव्य को कर्तव्य बना देना उसके बाएं हाथ का काम है। सारा संसार उसकी इच्छा का खेल है, उसकी इच्छा के बिना एक पत्ता भी कम्पित नहीं हो सकता है। संसार का उत्थान और पतन उसी के इशारे पर हो रहा है। __ वैदिक दर्शन की मान्यता है कि अज्ञ होने के कारण जीव अपने सुख और दुःख का भोक्ता स्वयं नहीं है। इसका स्वर्ग-नरक जाना ईश्वर की इच्छा पर निर्भर है। इसी भाव को लेकर कहा जाता है अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः । ईश्वरः प्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ॥ मनुष्य कुछ नहीं कर सकता। उसे तो स्वयं को ईश्वर के हाथों में सौंप देना चाहिये, ईश्वर की कृपा ही उसकी बिगड़ी बना सकती है। वैदिक दर्शन का कहना है कि भक्त भगवान की कितनी ही भक्ति कर ले, उपासना कर ले, कितना ही गुणानुवाद कर ले पर भक्त, भक्त रहेगा और भगवान, भगवान रहेगा। भक्ति, पूजा, जप, तप, त्याग, वैराग्य किसी भी प्रकार के अनुष्ठान या आराधन से भक्त भगवान नहीं बन सकता है। भगवान और भक्त के बीच में जो भेद-मूलक फौलादी दीवार खड़ी है, वह कभी समाप्त नहीं हो सकती है।
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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