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________________ २० अरिहंत-शब्द दर्शन कर्तृत्ववादी नहीं है; परंतु ईश्वरवादी अवश्य है। जैन दर्शन के अनुसार अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, अनन्तआनंद यह प्रत्येक मुक्त आत्मा का स्वरूप और ऐश्वर्य है। अनन्तता में सीमाओं का तारतम्य या तुलना नहीं होती। जहाँ स्वरूप-रमणता आ जाती है वहाँ अस्तित्व का दायरा अनन्त बन जाता है, उनकी अवस्था भी अनन्तमयी हो जाती है और उनका स्वरूप भी अनन्तमय होता है। यह अनन्तता अन्तिम है। सामूहिक अनुभूति की सहज अभिव्यक्ति जैन दर्शन के अनन्त ईश्वर की परिभाषा समान विकासशील मुक्तदशा का स्वीकार प्रत्येक अस्तित्व की सत्ता का स्वीकार है। आत्म साधक की साध्यदशा ईश्वर है। अतः ईश्वर की सत्ता का स्वीकार, हमारा अपना स्वीकार है। हमारी अनन्त आत्मस्थिति का स्वीकार है और अनन्त मुक्त पात्माओं की सहज स्वभावदशा का स्वीकार है। - जैन दर्शन में ईश्वर के लिए-अर्हन्, भगवन्, परमात्मन्, जिन, तीर्थंकर,. पुरुषोत्तम, वीतराग आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। ईश्वररूप माने जाने वाले परमात्मा के दो प्रकार हैं-अरिहंत परमात्मा और सिद्ध परमात्मा। स्वरूप की दृष्टि से दोनों के आन्तरिक स्वरूप में कोई अन्तर नहीं है। अरिहंत साकार परमात्मा माने जाते हैं। सर्व कर्म क्षय कर मोक्ष में जाने पर वे निराकार स्थिति को प्राप्त करते हैं; उन्हें निराकार सिद्ध परमात्मा कहते हैं। व्यक्ति की अपेक्षा से परमात्मा एक नहीं है, अनन्त जीव परमात्मपद प्राप्त कर चुके हैं। संसार में सभी प्राणी कर्मबद्ध हो भिन्न-भिन्न पर्यायों एवं जन्म-मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इनमें से जो भेद-ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं,वे प्रबल पुरुषार्थ द्वारा परमात्म पद प्राप्त करते हैं। ऐसा प्रयल जो भी जीव करते हैं, वे सर्व इस स्थिति को प्राप्त करने में सफल रहते हैं। जैन दर्शन का यह वज्र आघोष है कि "प्रत्येक व्यक्ति साधना के आलंबन से अपना आत्मिक विकास कर परमात्म स्थिति को प्राप्त कर सकता है। प्रत्येक आत्मा को सका सर्वाधिकार है।" परमात्मा एक जीव की अपेक्षा से सादि अनन्त है। अनादिकाल से अनेक आत्मा प्रयास करके सफलता पा चुके हैं और अनन्तकाल तक अनेकों इस स्थिति को प्राप्त करते रहेंगे। साकार परमात्मा भी आयुष्य की निश्चित स्थिति पूर्ण कर निर्वाण प्राप्त कर निराकार परमात्मपद को प्राप्त करते हैं। इस प्रकार जो निर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं उनका फिर संसार में आवागमन मिट जाता है। उनका पुनः जन्म धारण कर जगत् के संचालन में प्रवृत्तिमान् होना या संसार में पापवृद्धि के कारण पुनः अवतार लेकर सांसारिक आयोजन में प्रवृत्त होना जैन दर्शन को बिलकुल अमान्य है।
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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