SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 246
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ केवलज्ञान-कल्याणक २१३ . यह दिव्य देव दुंदुभि देवों के हस्ततल से ताड़ित अथवा स्वयं शब्द करने वाली होती है। यह स्वयं के गंभीर नाद से समस्त अन्तराल को प्रतिध्वनित करती है। दुंदुभि-रहस्य १. विश्व में गणधरादि आप्त-पुरुषों को परमात्मा का परिपूर्ण साम्राज्य अथवा धर्मचक्रवर्तित्व सूचित करता है। २. विषय-कषाय में अनासक्त और निर्मोही होकर श्री अरिहंत की शरण में आओ ऐसी उद्घोषणा करता है। ३. अरिहंत के विद्यमान रहते हुए प्राणियों को कर्मजन्य कष्ट क्यों हो सके ? इस प्रकार घोषणा करता है। जो सचमुच पीड़ित हैं वह दुन्दुभि नाद से भगवान के आगमन का बोध पाकर उनका सान्निध्य ग्रहण करते हैं। ४. दुन्दुभि ध्वनि तीनों जगत के लोगों को प्रमाद त्यागकर मोक्ष नगरी के सार्थवाह ऐसे अरिहंत भगवंत की आराधना का निवेदन करता है। ५. अरिहंत का प्रयाणोचित कल्याण-मंगल सूचित करता है। ६. अरिहंत भगवंत के धर्मराज्य की घोषणा प्रकट करता है और आकाश में अरिहंत भगवंत के यश को सूचित करता है। ७. सम्पूर्ण, विश्व को जीतने वाले महान योद्धा मोहनरेन्द्र को अरिहंत भगवंत ने शीघ्र ही जीत लिया है ऐसा सूचित करता हुआ दुंदुभि नाद सर्वजीवों के सर्वभयों की एक साथ तर्जना करता है। आतपत्र (छत्रस्त्रय) - भगवन्त जब विहार करते हैं, तब तीनों छत्र आकाश में ऊपर चलते हैं और भगवंत जब देशना हेतु बैठते हैं, तब देवगण ये तीनों छत्र उचित स्थान पर अशोकवृक्ष के नीचे और भगवान के ऊपर व्यवस्थित रूप से रखते हैं। ये छत्र तीनों लोकों के साम्राज्य को सूचित करते हैं। शरदऋतु के चन्द्र समान श्वेत कुंद और कुमुद जैसे अत्यन्त शुभ्र और लटकती हुई मालाओं की पंक्तियों के समान अत्यन्त धवल एवं मनोरम होते हैं। तीनों छत्र एक दूसरे के ऊपर रहते हैं। एक छत्र पर दूसरा और दूसरे के ऊपर तीसरा ऐसे तीन छत्र एक दूसरे के ऊपर रहते हैं। प्रभु की प्रवर्धमान पुण्य-संपत्ति के प्रकर्ष समान ये छत्र भगवान के तीनों जगत् का स्वामित्व प्रसिद्ध करते हैं। आठों प्रातिहार्य का सुशोभन इस प्रकार ये आठों महाप्रातिहार्य दृश्य की अपेक्षा से ऊपर नीचे चारों ओर सर्वतः विशेषाधिक महत्व से संपन्न होते हैं। भगवंत के मस्तक के ऊपर आकाश में
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy