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________________ २०२ स्वरूप-दर्शन निकलने में अंतर्मुहूर्त काल के भीतर संख्यात योजन चले जाते हैं। इसमें मिथ्यादृष्टि, अभव्य और असंज्ञी जीव कदापि नहीं होते हैं तथा अनध्यवसाय से युक्त, संदेह से संयुक्त और विविध प्रकार की विविधताओं से युक्त जीव भी नहीं होते हैं। ऐसे अपूर्व समवसरण को जिस साधु ने पहले कभी न देखा हो वह यदि समवसरण से बारह योजन भी दूर हो तो उसे आना ही पड़ता है। यदि वह न आवे तो उसे चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।' बलि-विधान ऐसे अद्भुत समवसरण में प्रभु देशना देते हैं। आवश्यकनियुक्ति, बृहत्कल्पभाष्य एवं चरित्रों में एक और भी कथन है कि देशना के पश्चात् छिलकों से रहित, अखंड और उज्ज्वल शालि (चावल) से बनाया हुआ और थाल में रखा हुआ चार प्रस्थ (सेर) बलि समवसरण के पूर्व द्वार से अन्दर लाया जाता है। देवगण उसमें खुशबू डालकर दुगुना सुगंधित बना देते हैं। प्रधान पुरुष उसे उठाकर लाते हैं। उसके आगे दुंदुभि बजती है। उनकी निर्घोष (ध्वनि) से दिशाओं के मुखभाग प्रतिघोषित (प्रतिध्वनित) हो उठते हैं। स्त्रियाँ उसके पीछे मंगलगीत गाती हुई चली आती हैं। यह ऐसा लगता है मानों प्रभु के प्रभाव से जन्मा हुआ, पुण्य का समूह हो। फिर कल्याणरूपी लता समूह के बीज समान तथा त्रिभुवन के विघ्नसमूह को नष्ट करने वाला वह बलि प्रभु की प्रदक्षिणा कराके उछाला जाता है। मेघ के जल को जैसे चातक ग्रहण करता है वैसे ही आकाश से गिरते हुए उस बलि के आधे भाग को देवता अन्तरिक्ष में ही (जमीन पर गिरने से पहले ही) ग्रहण कर लेते हैं। पृथ्वी पर गिरने के बाद उसका (गिरे हुए का) आधा भाग चक्रवर्ती या राजा ग्रहण करते हैं और जो शेष रह जाता है उसे गोत्र वालों की तरह अन्य सर्व लोग आपस में बांट लेते हैं। उस बलि के प्रभाव से पूर्वोत्पन्न रोगों का नाश हो जाता है और छः महिने तक पुनः नये रोग नहीं होते हैं। यह विधि श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों को मान्य है। परंतु यह भावावेश की अभिव्यक्ति मात्र होनी चाहिए। क्योंकि अरिहंत को स्वयं इसमें कुछ नहीं करना होता है। समवसरण कब और कितने समय में रचा जाता है ऐसा यह भव्य समवसरण कब और कितने समय में तैयार किया जाता है? इस प्रश्न के उत्तर में हेमचन्द्राचार्य कहते हैं-"जब समवसरण की आवश्यकता हो तब मानो वह पहले ही से तैयार रखा हो और उसे वहाँ से उठाकर रख दिया जाता है। ऐसे क्षणभर में ही देव और असुर मिलकर रचते हैं। इस प्रकार अतिशीघ्र इसकी रचना की जाती है। वह पहले से या हमेशा निर्मित नहीं होता है, परंतु क्षणभर में ही इसका निर्माण किया जाता है। १. आवश्यक नियुक्ति-गा. ५६८; बृहत्कल्प भाष्य-गा. ११९५
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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