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________________ १९० स्वरूप-दर्शन वृत्त समवसरण का मान ठीक बैठ जाता है पर चतुष्कोण समवसरण के नाप में ही यह प्रश्न उठता है। समवसरणस्तव में स्तोत्रकार दोनों समवसरण का वर्णन करते समय तीनों प्राकारों की रचना विशेष (स्वर्ण रजतादि) तथा कंगूरे आदि का सामान्य वर्णन कर वृत्त और चतुष्कोण में जो अलगाव है वहीं सीधा दर्शाते हैं-कि “वृत्त समवसरण की दीवालें ३३ धनुष और ३२ अंगुल चौड़ी और ५00 धनुष ऊँची होती हैं, एक कोश ६00 धनुष प्रमाण वाले वे प्राकार रलमय चार द्वारों से युक्त होते हैं। चतुष्कोण समवसरण की दीवालें १०० धनुष चौड़ी होती हैं, प्रथम और द्वितीय प्राकार में ११/२ (डेढ़) कोश (३000 धनुष) का अंतर है तथा द्वितीय और तृतीय . प्राकार के मध्य १ कोश (२000 धनुष) का अन्तर है और पूर्ववत् (तृतीय प्राकार. की तरह) १ कोश ६00 धनुष समझना। अवचूरिकार ने प्रस्तुत मन्तव्य में जो परिवर्तन किया है वह हम प्रथम देख आये हैं। अब स्तोत्रकार बस यहाँ से आगे चलकर कहते हैं-एक हाथ प्रमाण ऊँचे दश हजार सोपान चढ़ने पर प्रथम वप्र आता है . उसका ५० धनुष प्रतर है, तत्पश्चात् ५000 सोपान आते हैं उनके चढ़ने पर द्वितीय वप्र उसका भी ५० धनुष प्रतर, तत्पश्चात् पुनः ५000 सोपान चढ़ने पर तृतीय वप्र आता है, जो एक कोश और ६00 धनुष प्रमाण विस्तार वाला है। __ अब प्रश्न होता है कि प्रतर के ५० धनुष छोड़कर शेष ९५० धनुष के विस्तार में एक हाथ ऊँचे १२५० धनुष विस्तार में समा जाने वाले ५000 सोपान कैसे समा सकते हैं ? यद्यपि इस प्रश्न का समाधान जटिल है, कुछ मार्गदर्शन अवश्य मिलता है, वह इस प्रकार कि सोपानों की संरचना सीधी न होकर कुछ मोड़ वाली होगी। सोपान समवसरण की संरचना में सर्वाधिक महत्व सोपानों का है; क्योंकि इस रचना का आधार सोपान ही है। सम्पूर्ण समवसरण सोपानों द्वारा ही ऊपर उठा हुआ है। समवसरण में सोपान ही स्तम्भ या नींव का काम करते हैं। अतः इसकी रचना चारों ओर से विस्तृत और सुन्दर है। अतः १000 धनुष के विस्तार में ५000 सोपानों की रचना इस प्रकार होनी चाहिए कि जिससे यह चतुष्कोण समवसरण और उसका प्रथम प्राकार अत्यन्त सुशोभित हो उठे। ___ सोपानों की संरचना इस प्रकार हो सकती है कि पूर्वद्वार की ओर से ऊपर चढ़ने वाला व्यक्ति १000 सोपान चढ़कर प्रथम प्राकार तक आता है, इस प्राकार के ५० धनुष प्रतर विभाग को पार कर सोपान तक आता है। सोपान का स्थान ९५० धनुष है वहाँ ५000 सोपानों की व्यवस्था है। दोनों प्राकारों के बीच के दर्शाये हुए सीधे अन्तर के साथ प्रतर भूमि और एक हस्त-प्रमाण ५000 सोपानों का समावेश यद्यपि
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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