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________________ १७0 स्वरूप-दर्शन कभी उद्यान में यत्र तत्र जहाँ अवसर हो वहाँ वे विभिन्न आसनों ने निश्चलतापूर्वक ध्यान करते हैं। कभी वे पत्थर के स्तंभ की तरह निश्चल होकर क्षुद्र उपद्रव या भय को नहीं गिनते हुए प्रतिमा धारण कर रात्रि निर्गमन करते हैं, कभी वे चित्त को अत्यन्त निश्चल रखकर इन्द्रियों का रुन्धन कर परम आत्म तत्व की ध्यान रूप अग्नि में कमल पत्रवत् कोमल देह को तपाते हुए दिन-रात निर्गमन करते हैं। ___ कुछ साधक ध्यान के विषय में आसनों का आग्रह रखते हैं परंतु अरिहंत के ध्यान के लिये किसी विशेष प्रकार के आसन का आग्रह नहीं रहता। वे पद्मासन, पर्यंकासन, वीरासन, गोदोहिका, उत्कटिका आदि किसी भी आसन में द्रव्य-शरीर से. तथा भाव से निश्चल होकर प्रशस्त ध्यान करते हैं। श्रमण भगवान महावीर ने साधना के ग्यारहवें वर्ष में जो ध्यान साधना की वह अवश्य मननीय है। उन्होंने एक रात्रि की प्रतिमा की साधना की। आरम्भ में तीन दिन का उपवास किया। तीसरी रात को शरीर का व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग) कर खड़े हो गए। दोनों पैर ऊपर से सटे हुए थे और नीचे के पैर एड़ी से दो अंगुल और आगे से चार अंगुल अंतर से स्थिर थे। दोनों हाथ पैरों से सटकर नीचे की ओर झुके हुए थे। दृष्टि का उन्मेष-निमेष बन्द था। उसे किसी एक पुद्गल (बिन्दु) पर स्थिर कर और सब इन्द्रियों को अपने-अपने गोलकों में स्थापित कर ध्यान में लीन हो गए थे। ग्यारहवें वर्ष में ही सानुलठ्ठिय गाँव में विहार कर रहे थे। वहाँ श्रमण भगवान महावीर ने भद्रप्रतिमा की साधना प्रारम्भ की। वे पूर्व दिशा की ओर मुँह कर कायोत्सर्ग की मुद्रा में खड़े हो गए। चार प्रहर तक ध्यान की अवस्था मे खड़े रहे। इसी प्रकार उन्होंने उत्तर, पश्चिम और दक्षिण दिशा की ओर अभिमुख होकर चार-चार प्रहर तक ध्यान किया। इस प्रतिमा में आनन्द की अनुभूति करते हुए इसी श्रृंखला में ही वे महाभद्रप्रतिमा के लिए प्रस्तुत हो गए। उसमें भगवान् ने चारों दिशाओं में एक-एक दिन-रात का ध्यान किया। वे ध्यान के इसी क्रम में सर्वतोभद्र प्रतिमा की साधना में लग गये। उसमें भगवान् चारों दिशाओं, चारों विदिशाओं, ऊर्ध्व और अधः इन दशों दिशाओं में एक-एक दिन रात तक ध्यान करते रहे। इस प्रकार भगवान् ने कुल मिलाकर सोलह दिन-रात तक निरंतर ध्यान-प्रतिमा की साधना की। अरिहंत परमात्मा के ध्यान में ध्येय किसी भी साधक के लिए ध्येय अत्यावश्यक है। श्रमण भगवान महावीर प्रहर-प्रहर दिन पर्यन्त ध्यान करते थे। उनका मुख्य ध्येय उनकी आत्मा ही है; क्योंकि वे स्वयं अपनी आत्मा के वैराग्य मार्ग में प्रविष्ट होकर स्वयं का ही ध्यान करते हैं। इसके अतिरिक्त अप्रतिज्ञा-आकांक्षा से रहित होकर वे जिन अन्य ध्येयों में ध्यानस्थ होते हैं ये ये हैं
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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