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________________ .............. १३० स्वरूप-दर्शन विश्वोद्धारक विराट् मूर्ति के चौदह रज्जू लोक में होने वाले विस्तृत प्रकाश पुंज का पार्थिव रूप में पृथ्वी पर प्रवेश है। यह परम दशा तो मात्र तीर्थंकरों को ही होती है। ऐसे परम तारक रूप में जीवन उनका ही हो सकता है जिन्होंने इस विशेष कर्म का निकाचन किया हो। जीवन से तो कई आदरणीय, पूजनीय, अर्चनीय होते हैं पर गर्भ प्रवेश से ही गुण निष्पन्न होने वाले पूजनीय अन्य कौन हो सकते हैं ? गर्भ में ही अरिहंत की अपूर्व शक्ति का एक नमूना देखिये-गर्भ में ही अपूर्व शक्ति एवं करुणा दृष्टि के परम पात्र हैं परमात्मा महावीर। “मेरे हिलने-डुलने से माता को काया कष्ट होगा"-ऐसा सोचकर स्थिर रहते हैं। पर, परिणाम कुछ उलटा आता है। माता त्रिशला . तो बालक के अकंप भाव से शंकाशील एवं संवेदनशील बन गईं। मोह-प्रचुर माता की .. इस अवस्था का निरीक्षण कर, ज्ञान बल से स्वयं के सोपक्रम मोहनीय कर्म को और । माता पिता के सोपक्रम आयुष्यकर्म को जानकर तत्काल टूटने वाले आयुष्य कर्म को . अटूट वैराग्य की बलिहारी चढ़ाकर प्रतिज्ञावान् बन गये। ऐसी अपूर्व वीर्य शक्ति क्या अन्य जीवों में च्यवन के समय संभव हो सकती है? __ जैन दर्शन की मार्मिकता गर्भ में ही झलका देते हैं, श्रमण भगवान महावीर। कौन . बलवान है-नियति या पुरुषार्थ ? जिस समय जो बनने वाला होता है वह बनता है इसका नाम है नियति। जीवात्मा स्वयं के प्रयास से जो सर्जन या विसर्जन करता है वह है पुरुषार्थ। निरुपक्रम कर्म नियति प्रधान होते हैं और सोपक्रम कर्म पुरुषार्थ प्रधान होते हैं। अतः तीर्थंकर परमात्मा गर्भ में भी आवश्यक ऐसी औचित्य की आराधना कर सर्वोत्कृष्ट ऐसे स्वात्मतत्व का विकास करते हैं। द्रव्य निक्षेप की अपेक्षा से च्यवन होते ही अरिहंत परमात्मा को अरिहंत तीर्थकर या जिन आदि कहा जाता है। ___ अरिहंत परमात्मा की प्रस्तुत व्याख्या यद्यपि उनके केवलज्ञान के पश्चात् होने वाली विलक्षणता को विशेष मानकर की गई है, परन्तु जन्म से ही अरिहंत के आर्हन्त्य का प्रारम्भ हो जाता है। भगवान ऋषभदेव के समवसरण के बाहर रहे हुए मरीचि को भरत महाराजा ने इसी द्रव्य निक्षेप की अपेक्षा से अरिहंत मानकर वंदना की थी। उनको अरिहंत मानकर ही च्यवन काल से ही शक्रेन्द्रादि उनकी सेवा, पूजा तथा अर्चना करते हैं तथा उनके विशेष अवसरों पर महोत्सव भी मनाते हैं। अतः च्यवन से ही अरिहंत का तीर्थंकर नामकर्म के प्रदेशोदय का प्रारम्भ हो जाता है और केवलज्ञान - के बाद विपाकोदय का प्रारम्भ होता है। ___ अरिहंत देवलोक या नरक से ही च्युत होकर इस मनुष्यभव में आते हैं। तिर्यंच से नहीं। देवलोक से अरिहंत के आगमन को च्यवन और नरक से आगमन को उद्वर्तन कहा जाता है।
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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