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________________ १२२ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम यहाँ तीर्थ शब्द को प्रवचन शब्द का एकार्थवाची मानने पर एक प्रश्न होता है कि तीर्थ तो साधु-साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप होता है। यदि तीर्थाधिपति (तीर्थंकर) भी प्रवचन हैं तो उनके निमित्त से निष्पन्न तीर्थ कैसे प्रवचन कहा जाता है ? इसका समाधान श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने बहुत सुंदर किया है। यहाँ पर "जत्थेव पइट्ठियं नाणं"१ प्रस्तुत प्रश्न का खास समाधान है। जहाँ ज्ञान की प्रतिष्ठा होती है वह प्रवचन है। तीर्थ के अतिरिक्त इन प्रवचन में प्रयुक्त ज्ञान की प्रतिष्ठा कहाँ हो सकती है? ___प्रवचन का धारक एवं प्रचारक चतुर्विध संघ (तीर्थ) होता है। तीर्थ की प्रवृत्ति तीर्थंकर के उपदेश से होती है। तीर्थ की उत्पत्ति का आधार ही तीर्थंकर का. प्रवचन है। तीर्थाधिपति के उपदेश के बाद ही तीर्थ की स्थापना होती है। अतः प्रवंचन के फलस्वरूप निष्पन्न हुए तीर्थ को भी प्रवचन कहा गया है। ___अरिहंत अर्थ कहते हैं और गणधर उनके सूक्ष्मार्थ को बहुअर्थवाले सूत्र में. गूंथते हैं-रचते हैं और शासन के हित हेतु इसका प्रवर्तन करते हैं। इस प्रकार प्रवचन के मुख्य प्रदाता, उत्पत्तिकर्ती या रचयिता अर्थ से अरिहंत और सूत्र से गणधर भगवान हैं। परन्त इसकी प्रवत्ति समिति-गप्ति चारित्राचार के. पालन में होती है। इसलिए पाँच-समिति और तीन गुप्ति को “अष्टप्रवचन माता" कहते हैं। अष्टप्रवंचनमाता में जिनेन्द्र कथित द्वादशांग रूप समग्र प्रवचन गर्भित है। अतः इन्हें प्रवचन. की माताजन्मदात्री का सम्मान प्राप्त हुआ है। जिस प्रकार माता अपने बच्चे की रक्षा-सुरक्षा और पालन-पोषण करती है वैसे ही यह प्रवचन-माता साधक का पालन-पोषण करती है। प्रस्तुत पद प्रवचन-प्रभावना है। अतः प्रवचन के साथ प्रभावना का भी इस पद में उतना ही महत्व है। प्रवचन की तरह प्रभावना का भी जैन-साधना में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। प्रवचन प्रभावना दो तरह से होती है-व्यवहार से एवं निश्चय से। श्रावक वर्ग दान, स्वामिवात्सल्य आदि द्वारा शासन प्रभावना करते हैं और श्रमण वर्ग तप श्रुतादि द्वारा करते हैं। यह व्यवहार प्रभावना है। शासन पर आये उपसर्गों को हटाकर जीवों को शासनप्रेमी बनाने हेतु विविध स्तोत्रों की रचना कर हमारे प्राचीन महर्षियों ने विशिष्ट प्रकार की प्रभावना की है। भद्रबाहु स्वामी का "उपसर्गहर स्तोत्र" मानतुंगसूरि का "भक्तामर स्तोत्र" सिद्धसेन दिवाकर का “कल्याण मंदिर स्तोत्र" आदि हमारी प्राचीन स्तोत्र रचनाएँ शासन-प्रभावना के अविस्मरणीय उदाहरण रहे हैं। व्यवहार प्रभावना गुण के बल से मिथ्यात्व, विषय, कषाय आदि जो सम्पूर्ण विभाव परिणाम हैं, जो परमतों का प्रभाव है उसको नष्ट करके शुद्धोपयोग. लक्षण १. जीतकल्प सूत्र भाष्य, गा. १
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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