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________________ . . . . . . . . . आराधक से आराध्य १०९ निरतिचार शीलव्रत ___ जो नियम श्रद्धा और ज्ञान पूर्वक स्वीकार किया जाता है, उसे व्रत कहते हैं। इस अर्थ के अनुसार साधु के पाँच महाव्रत और श्रावक के बारह व्रत, व्रत शब्द में आ जाते हैं, फिर भी यहाँ व्रत और शील इन दो शब्दों का प्रयोग करके यह सूचित किया गया है कि चारित्र धर्म के मूल नियम अहिंसा, सत्य आदि पांच हैं और अन्य नियम तो इन मूल नियमों की पुष्टि के लिए ही हैं। . ____ हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह से निवृत्त होना-व्रत है। इसी व्रत शब्द पर व्रत करने वाले व्रात्य कहलाने लगे। आगे चलकर यह शब्द एक जाति-विशेष के नाम से प्रसिद्धं रहा। अल्प अंश में विरति-अणुव्रत और सर्वांश में विरति-महाव्रत है। . उन व्रतों को स्थिर करने के लिए प्रत्येक व्रत की पांच-पांच भावनाएं हैं। यदि इन भावनाओं के अनुसार सदैव बर्ताव किया जाय, तो लिए हुए व्रत उत्तम औषध के समान प्रयत्नशील के लिए सुंदर परिणामकारक सिद्ध हो सकते हैं। वे भावनाएं क्रमशः इस प्रकार हैंप्रथम महाव्रत की पाँच भावना १. ईर्या भावना, २. मन भावना, ३. वचन भावना ४. आदाणभांडमात्र निक्षेपणा भावना, ५. आलोकित पान भोजन भावना। द्वितीय महाव्रत की पाँच भावना .: १. सोच समझकर बोलना, बिना सोचे नहीं बोलना। . २. क्रोध से झूठ नहीं बोलना, ध्यान रखने पर भी यदि क्रोध आ जाय तो क्षमा रखना। ३. लोभ से झूठ नहीं बोलना, ध्यान रखने पर भी यदि लोभ हो जाय तो संतोष रखना। ४. भय से झूठ नहीं बोलना, ध्यान रखने पर भी यदि भय आ जाय तो धैर्य . . . रखना। - ५. हंसी मजाक से झूठ नहीं बोलना, हंसी मजाक का अवसर हो तब मौन रखना। तृतीय महाव्रत की पाँच भावना १. अठारह प्रकार के स्थान सोच समझकर उपयोग में लेना, बिना सोचे समझे .. उपयोग में नहीं लेना। २. सलाका, काष्ट, कंकर आदि सोच समझकर उपयोग में लेना, बिना सोचे समझे उपयोग में नहीं लेना।
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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