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________________ . भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ५. न्यमोल्यताम्भोरहिणीगणेन , तीक्ष्णांशनाप्यस्तगिरिनिलिल्ये। नपेण चात्याजि तटाकतीरं , दीनं मुखं द्वन्द्वचरस्य दृष्ट्वा ॥ चकवे के दीन मुंह को देखकर कमलिनियाँ सिकुड़ गईं। सूर्य अस्ताचल में जा छुपा । राजा ने भी सरोवर के तट को छोड़ दिया। . निमीलिताम्भोरुहपत्रनेत्रा , तमःपटीसंवलिताम्बुदेहा । सुष्वाप कामं सरसी प्रदोषे', वियोगदुःखादिव चक्रनाम्नोः ॥... कमलपत्र रूपी नेत्रों को मूंदे हुए तथा अन्धकार रूपी वस्त्र से जल-शरीर को ढाँके हुए वह तलाई रात के प्रारम्भ काल में ही गाढ निद्रा में सो गई, मानो कि. वह चक्रवाकों के वियोग-दुःख से दुःखित हो गई हो। ७. अस्तंगते भानुमति प्रभौ स्वे , सन्ध्याचिताहव्यवहे दिनेन । . धूमैरिव ध्वान्तभरैः प्रसस्र , निजं वपुर्भस्ममयं वितेने ॥ . .. अपने स्वामी सूर्य के अस्तंगत होने पर दिन ने संध्या रूपी चिता की अग्नि में अपने शरीर को भस्ममय बना डाला और अन्धकार धुएँ की भांति फैल गया। . ८. आकाशसौधे रजनीश्वरस्य , महेन्द्रनीलाश्मनिबद्धपीठे। प्रादुर्बभूवुः परितो दिगन्तांस्ताराः प्रदीपा इव वासरान्ते ॥ अब चाँद के महान् इन्द्रनील रत्न से निबद्ध पीठ वाले आकाश रूपी प्रासाद के हर दिगन्त में तारे जगमगाने लगे जैसे कि दिन का अवसान होने पर दीपक जगमगाते हैं। ६. वियोगिनीनां विरहानलस्य , निःश्वासधूमावलिधूम्रधाम्नः । स्फुटाः स्फुलिङ्गा इव पुस्फुरुश्च , खद्योतसंघातमिषात्तदानीम् ॥ उस समय वियोगिनी स्त्रियों की निःश्वास रूपी धूमावलि से मलिन तेज वाली विरहाग्नि से, जुगुनूओं के समूह के मिष से स्फुट स्फुलिंग उछल रहे थे। १. द्वन्द्वचर:-चकवा (कोको द्वन्द्वचरोऽपि च–अभि० ४।३९६) २. प्रदोषः-रात का प्रारम्भ काल (प्रदोषो यामिनीमुखम्-अभि० २।५८) . ३. चक्रनामन्–चकवा (चक्रवाकः रथाङ्गाह्वः-अभि० ४।३६६) ४. ज्वलन्तः–इत्यपि पाठः । ५. निश्वास.....—किं विशिष्टस्य विरहानलस्य-निश्वासा एव धूमावलिस्तया धूम्र-मालनं धाम-तेजो यस्य असौ, तस्य ।
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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