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________________ चतुर्थः सर्गः अथ दूतगिरा ज्वलन्नपि क्षितिराजः क्षपितारिविग्रहम् । वचनं प्रणयाञ्चितं दघे, वदनेम्भोद इवाम्बु विद्युता ॥ महाराज भरत दूत की बातें सुनकर जल उठे। फिर भी उन्होंने अपने मुंह से शत्रु के विग्रह को नष्ट करने वाले प्रेमपूर्ण वचन कहे, जैसे विद्युत् से जलता हुआ भी बादल शीतल बूंदें बरसाता है । अहमेव गतो विलोलतां यदमुं प्रजिघाय' बान्धवं ४. , पवनोद्धत इवावनीरुहः । प्रति दौत्याय न हीदृशा मताः ॥ 1 , महाराज. भरत ने मन ही मन सोचा कि इस कार्य में दोष मेरा ही है, क्योंकि पवन से कंपित वृक्ष की तरह चपल होकर स्वयं मैंने ही इस दूत को अपने भाई के पास भेजा था। ऐसे निकटवर्ती प्रिय जनों के पास दूत नहीं भेजे जाते ( वहाँ तो स्वयं मुझे ही जाना चाहिए था ) । वितनोमि यदीह विग्रहं, बलिना सार्धमहं स्वबन्धुना । उपमां जलवासिनस्तिमेरहमेतास्मि तदा जनोक्तिभिः ॥ यदि मैं अपने शक्तिशाली भाई के साथ संग्राम करता हूँ तो जनता मुझे जल में रहने - वाली मछली की उपमा से उपमित करेगी । निहतायन भूभूमिके', दिविषच्छेवलिनीरयेऽपि यः । न हि वेतसवृत्तिमाश्रितः किमहं तस्य पुरोभिमानिनः ॥ - गंगापूरे । , २. निहता १. प्रजिघाय — हिंत् — गतिवृद्ध्योः धातोः णबादिप्रत्ययस्य उत्तमवचनस्य एकवचनम् । निहताः पातिताः अयनभूभृतो मार्गपर्वता याभिरेतादृशा ऊर्मिकाः कल्लोला यत्रासौ, तस्मिन् । ३. दिविष
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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