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________________ अध्याय २. . “सूत्र और अर्थ के विषय में शंका रहित भी साधु गर्व न करे तथा विभज्यवाद युक्त वचन बोले, धर्माचरण करने में प्रवृत्त रहने वाले साधुओं के साथ विचरता हुआ साधु सत्यभाषा और जो असत्य नहीं, मिथ्या नहीं है ऐसी भाषाओं को बोले। उत्तम बुद्धि सम्पन्न साधु धनवान् और दरिद्र सब को समभाव से धर्म कहे ।' अन्यत्र भी कई स्थलों पर इसी का उल्लेख दूसरे शब्दों में किया गया है। इस प्रकार “जो संशय को दूर करने वाला है वह पुरुष सब से ज्यादा पदार्थ को जानता है । स्पष्ट है कि वस्तु तत्त्व का ज्ञाता वहीं हो सकता है जिस के सभी संशय दूर हो चुके हैं। अब आगे सूत्रकार बता रहे हैं कि किस कारण से श्रद्धान में रूकावट आती है “सर्वज्ञोक्त सिद्धांत में श्रद्धाशील बनो । हे असर्वज्ञोक्त आगम को स्वीकार करने वाले जीवों ! जिनकी ज्ञानदृष्टि अपने किये हुए मोहनीय :: कर्म के प्रभाव से बंद हो गई है वह सर्वज्ञोक्त आगम को नहीं मानता है, यह समझो।" .: यहाँ यह विदित होता है कि मोहनीयकर्म के कारण सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं हो सकती। साथ ही यह भी फलित होता है कि १. संकेज याइसंकितभाव भिक्खू विभजवायं च वियागरेजा। .. भासादुयं धम्मसमुट्ठितेहिं, वियागरेजा समया सुपन्ने । -वही, अध्य. चतुर्दश, गा. २२ ।। २. वही, अध्य. दशम, गाथा ३ ॥ ३. अंतर वितिगिच्छाए, से जाणंति अणेलिसं । अणेलिसस्स अक्खाया, ण से होइ तहि तहिं ॥ -सूत्र., तृ. ख., अध्य. पंचदश, गा २, पृ. २३५॥ ४. अदक्खुव दक्खुवाहियं (तं) सहहसु अदक्खुदंसणा । ... हंदि हु सुनिरुद्धदंसणे मोहणिजेण कडेण कम्मुणा । ११ ॥ _ -वही, प्र०ख०अध्य द्वितीय उद्दे० ३, गा० ११, पृ २८४||
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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