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________________ ૨૪૮ तीन गुप्ति - योगों का जो प्रशस्त निग्रह है वह गुप्ति है । यह तीन प्रकार की है - मन, वचन और काया । त. सू. ३३५. जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप सहिंसा - अपनी रक्षार्थ स्वयं चलने फिरने की शक्ति वाले जीव त्रस कहलाते हैं । दोइन्द्रिय से संज्ञीपंचेन्द्रिय तक के जीव त्रस हैं, उनकी हिंसा करना हिंसा है । जै. सि. को . ३ / ३९७. दर्शनावरणीय -- जैन संमत आठ कर्मों में यह दूसरा कर्म है । जो पदार्थ के दर्शन में बाधक हो अथवा दर्शनगुण के आवारक कर्म को दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं । जै. ल. २ / ५१५. दलिक - कर्मपुद्गल के समूह को दलिक कहते हैं । द्रव्यार्थिक नय - देखो नय । नय - जिससे वस्तु के एक अंश का बोध हो वह नय कहलाता है । इसके मुख्य द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दो भेद हैं । वस्तु सामान्य अंश को ग्रहण करे वह द्रव्यार्थिक नय एवं विशेष अंश को ग्रहण करे वह पर्यायार्थिक नय है । तं. सू. १३. निदान कर्म - अपने चित्त में संकल्प करना कि मेरी तपस्या से मुझे अमुक फल प्राप्त हो, इसे निदान अथवा नियाणा कर्म कहते हैं । जै. सि. बो. सं. ३/२१५. निर्ग्रन्थ प्रवचन -जिसमें राग द्वेष की गांठ नहीं है उसे निर्ग्रन्थ कहते हैं अर्थात् वीतराग ने जो कहा है उनके वचन निर्ग्रन्थ प्रवचन हैं ।
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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