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________________ २३६ . जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप माना तो किसी ने सहभागी माना । तत्त्वार्थ के पूर्व नंदीसूत्र में देववाचक गणि ने नंदीसूत्र में कहा कि सम्यग्दृष्टि का श्रुत ही सम्यक् श्रुत अन्यथा वह मिथ्याश्रुत ही है । दिगम्बर साहित्य में भी सम्यक्त्व का यही स्वरूप स्वीकृत किया है । तत्त्वार्थसूत्र के पश्चात्वर्ती सामान्यतया संपूर्ण जैन साहित्य में उसकी ही छाप दिखाई देती है। हां तत्त्वों के अन्तर्गत अवश्य फेरफार किया है । हरिभद्रसूरि ने तो सड़सठ भेद सम्यक्त्व के बताए हैं। जैनेत्तर दर्शनों में बौद्धदर्शन तो श्रमण भगवान् महावीर के . समकालीन व सन्निकट. रहा हैं अतः इनमें एक दूसरे का प्रतिबिम्ब झलकना स्वाभाविक है । त्रिपिटकों में सम्यग्दृष्टि को सम्माविट्ठी कहा गया तथा सम्यग्दृष्टि का श्रद्धायुक्त होना माना गया है । आर्य . अष्टांगिक मार्ग में, शिक्षात्रय, आध्यात्मिक विकास की पांच शक्तियाँ, ओर पांच बल सभी में श्रद्धा का स्थान प्रथम माना है । श्रद्धा को सांख्यदर्शन एवं योगदर्शन ने विवेकख्याति कहकर सम्बोधित किया है । वेदांतदर्शन में ज्ञान में ही श्रद्धा को अन्तर्निहित किया गया है। महाभारत में श्रद्धा को सर्वोपरि माना है तथा श्रद्धा ही सब पापों से मुक्त कराने वाली है ऐसा मान्य किया है। गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को श्रद्धा धारण करने का उपदेश दिया और कहा कि श्रद्धावान् ही ज्ञान प्राप्त कर सकता है, वही संयती होता है। तदनन्तर वह आत्मा परब्रह्म को प्राप्त हो सकती है । ईसाई धर्म व इस्लाम धर्म ने भी श्रद्धा को प्राथमिकता दी है । सारांश यही है कि सर्वधर्मदर्शनों ने श्रद्धा सम्यग्दर्शन को मोक्ष का हेतु समवेत स्वर से स्वीकार किया है। ___आध्यात्मिक दृष्टि से तो सम्यग्दर्शन का स्थान महत्त्वपूर्ण है ही. किन्तु लौकिक जीवन में भी क्या इस का मूल्य है ? इस पर भी हम विचार करें। जैन मान्यतानुसार इसका हम यथार्थ दृष्टिपरक अर्थ करते हैं तो भी इसका महत्त्वपूर्ण स्थान सिद्ध होता है। क्योंकि यह
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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