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________________ अध्याय ३ २२१ श्रीमद्भागवत श्रीमद्भगवद्गीता में सम्यग्दर्शन/श्रद्धा के स्वरूप का हमने अवलोकन किया । अब श्रीमद्भागवत में इसके स्वरूप पर विचार करेंगे । श्रीमद्भागवत सब पुराणों में सिरमौर है अतः इसे महापुराण कहते हैं । महामुनि व्यास, जिन्होंने वेदों का संपादन, ब्रह्मसूत्रादि तथा महाभारत की रचना की है, इसके भी रचयिता माने जाते हैं। इन अपूर्व ग्रंथों की रचना करने के बावजूद भी महर्षि वेदव्यास के मन में असंतोष एवं अतृप्ति बनी रही। उन्हें यह अनुभव होने लगा कि मेरे जीवन-कार्य में कुछ कसर रही प्रतीत होती है। इसका कारण व उपाय खोजने के लिए वे. विचार करने लगे तब महर्षि नारद के सद्रोध से समाहितचित में स्फूर्ति हुई कि कलिकाल के जीवों के उद्धार के लिए सरल मार्ग-भक्तिमार्ग है, इस मार्ग की प्ररूपणा के लिए उन्होंने भागवत की रचना की । इस प्रकार श्रीमद्भागवत भक्तिमार्गीय तत्त्वज्ञान का एक अपूर्व ग्रंथ है, इसीलिए इसे “ पारमहंसी संहिता" नाम से भी अभिहित किया गया है। . . इस महापुराण में भगवद्भक्ति का ही विशेष रूप से निरूपण किया गया है। वास्तव में भागवत का प्रयोजन ही यह है कि भक्ति का उत्कर्ष दिखाकर मनुष्य को उस ओर प्रवृत्त करना । ग्रंथ के आदि मध्य और अंत में भक्ति का ही विवेचन किया है। इस ग्रंथ में ग्रंथकार ने भक्ति को ज्ञान वैराग्य से भी उत्कृष्ट स्वीकार की है। भक्तिप्रधान धर्म की श्रेष्ठता बताते हुए कहा कि " मनुष्यों के लिए सर्वश्रेष्ठ धर्म वही है, जिससे भगवान् श्रीकृष्ण में भक्ति हो । भक्ति भी ऐसी हो जिसमें किसी प्रकार की कामना न हो और जो नित्य निरंतर बनी रहे; ऐसी भति से हृदय आनन्द स्वरूप परमात्मा की उपलब्धि करके कृतकृत्य हो जाता है। भगवान् श्रीकृष्ण में भक्ति होते ही, १ स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे । अहैतुक्यप्रतिहता ययाऽऽत्मा सम्प्रसीदति ॥ भा० पु०, १-२-६ ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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