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________________ २१० जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप हुए. राजसी और तामसी ।' इन तीन प्रकार की श्रद्धा का विवेचन करते कहा कि सभी को अपने पूर्वजन्म के कर्मों के संस्कारवाली बुद्धि के अनुसार श्रद्धा होती है । यह पुरुष भी श्रद्धावाला ही है । जो जैसी श्रद्धा वाला होता है वह वैसा ही कहलाता है । ' इस प्रकार यहाँ सात्विकी, राजसी व तामसी तीन प्रकार की श्रद्धा का वर्णन किया है इसमें सात्विकी उत्कृष्ट है राजसी मध्यम व तामसी निकृष्ट है । हम सात्विकी श्रद्धा को सम्यग्दृष्टि एवं तामसी को मिथ्यादृष्टि एवं राजसी को मिश्रदृष्टि कह सकते हैं । इस प्रकार महाभारत में श्रद्धा विषय पर विचार किया है । हालांकि यह जैनदर्शन से भिन्न है क्योंकि यहाँ वेद परकश्रद्धा स्वीकार की है और इन वाक्यों पर की गई श्रद्धा से परब्रह्म की प्राप्ति हो सकती है अतः वेदनिष्ठ श्रद्धा सम्यग्दर्शन की कोटि में आ सकती है । श्रद्धा का स्थान इसमें तप-जप-यज्ञ आदि सभी से पूर्व है। श्रद्धा को ही यहाँ प्राथमिकता दी गई है। श्रद्धावान् के कर्म शुभ और अश्रद्धावान् के कर्म अशुभ स्वीकार किये हैं । जिस प्रकार जैन दर्शन में सम्यग्दृष्टि के कर्म निर्जरा हेतु व संवर हेतु कहे हैं उसी प्रकार यहाँ भी यह रूप दिखाई देता है । इस रूप में महाभारत में सम्यग्दर्शन / श्रद्धा का विचार किया गया है । श्रीमद्भगवद्गीता अभी हमने 'महाभारत' में सम्यग्दर्शन के स्वरूप को 'श्रद्धा' के रूप में देखा । अब हम भगवद्गीता में इसका विचार करेंगे कि यहाँ इसका क्या स्वरूप निर्धारित किया है । गीता में सम्यक्त्व | सम्यग्दर्शन के स्थान पर 'श्रद्धा' ग्राह्य है । १. त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा । सात्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु । वही, भीष्मपर्व ४१-२ ॥ २. सत्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत । श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः । वही ४१-३ ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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