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________________ २०८ . जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप कि जो पुरुष श्रद्धा से रहित है उसे देवताओं को होम द्रव्य अर्पण करने का अधिकार नहीं है क्योंकि अश्रद्धालु का अन्न भोज्य नहीं है अतः ।' ___उपरोक्त कथन व्यावहारिक सम्यग्दर्शन के सदृश है । तथा वेदोक्त धर्म पर श्रद्धा, जिनप्ररूपित धर्म पर श्रद्धा के निकट है। महाभारत में वेदों को प्राधान्यता दी है अतः वेदवाक्यों पर होने वाली श्रद्धा सम्यग्दर्शन की कक्षा में आ सकती है। श्रद्धा की परिपूर्णता का उल्लेख करते हुए कहा कि " मन्त्रादि । के उच्चारण में स्वर या वर्ण के विपर्यास के कारण यदि कर्म नष्ट होता हो तो उसका श्रद्धा रक्षण करती है। इसी प्रकार मन की व्यग्रता के कारण जो ध्यानादि कर्म अपूर्ण रह गया हो तो उसे श्रद्धा पूर्ण कर देती है किंतु श्रद्धा के अभाव से नष्ट हुआ कर्म पुरुष की वाणी का या मन का रक्षण हो नहीं सकता ।”२ इससे सिद्ध होता है कि मनुष्य के जीवन में श्रद्धा का महत्त्वपूर्ण स्थान है तथा सर्व कर्मों में श्रद्धा के होने को प्राथमिकता दी गई है। कहा है-" मनुष्य पवित्रता रहित हो पर श्रद्धा से युक्त है तो उसका द्रव्य यज्ञकर्म में उपयोगी हो सकता है ।"3 श्रद्धा को तो ग्रन्थकार ने यहाँ तक स्थान दिया है कि " यज्ञ करने वाला पुरुष मानसिक श्रद्धा को ही अपनी स्त्री बनाता है " यहाँ तात्पर्य यह है कि स्त्री बिना श्रौतयज्ञ हो नहीं सकता, ऐसा वेद में कहा गया है। जिस पुरुष के स्त्री न हो उसे श्रद्धा रूपी स्त्री को साथ में रख कर यज्ञ करना चाहिये ।। १. अश्रद्दधान एवैको देवानां नाहते हविः । तस्यैवान्नं न भोक्तव्यमिति धर्मविदो विदुः । वही २६४-१५ ।। २. वाग्वृद्धं त्रायते श्रद्धा मनोवृद्धं च भारत । श्रद्धावृद्धं वाङ्मनसी न कर्म त्रातुमर्हति । वही २६४-९॥ ३. शुचेरश्रद्दधानस्य श्रद्दधानस्य चाशुचेः । वही २६४-१०॥ .. ४. वही २६३-३९ ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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