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________________ २०४ जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप कारण वह इस तथ्य को भूल जाता है और स्वयं को मन, शरीर, इन्द्रियाँ इत्यादि समझने लगता है । यही उसका अज्ञान है । परंतु जब यह दोषपूर्ण तादात्म्य समाप्त हो जाता है, जब अज्ञान की निवृत्ति और ज्ञान का प्रादुर्भाव हो जाता है तब यह जीव अनुभव करता है कि वह अनादिकाल से ब्रह्म ही था । ब्रह्मसूत्र में कहा है कि "बुद्धि का संयोग जब तक आत्मज्ञान से संसार की निवृत्ति नहीं होती तब तक रहता है उस पर भाष्य करते हुए कर कहते है कि जब तक सम्यग्दर्शन से संसारित्व निवृत्त नहीं होता तब तक बुद्धि के साथ संबंध. निवृत्त नहीं होता । स्पष्ट है जब सम्यग्दर्शन अर्थात् यथार्थ दर्शन होता है तब देहात्मबुद्धि की निवृत्ति हो जाती है। इस प्रकार शंकर दृढ़तापूर्वक कहते है ज्ञान : और केवल ज्ञान (यर्थाथ ज्ञान) ही मोक्ष का साधन है । वे आग्रहपूर्वक स्थापना करते हैं कि मोक्ष का कर्म से कोई संबंध नहीं है । ज्ञान और कर्म के बीच में वैसा ही विरोध है जैसा कि प्रकाश और अंधकार के बीच है । पुण्य और पाप कर्मों का फल क्रमशः सुख-दुःख है, परंतु आत्मज्ञान का फल स्वयं मोक्ष है । कर्म और भक्ति मन को शुद्ध करके ज्ञान के उदय के लिए आधार तैयार करते हैं और इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से मोक्ष के साधन है। प्रत्यक्षरूप से वे मोक्ष के साधन नहीं । दनिक जीवन का रज्जु-सर्प का भ्रम कर्म या भक्ति द्वारा दूर नहीं किया जा सकता इसी प्रकार ब्रह्म जगत् भ्रम को भी कर्म या भक्ति के द्वारा दूर नहीं किया जा सकता, वह केवल ज्ञान से ही दूर किया जा सकता है। इस प्रकार देनिक जीवन का उदाहरण देकर शंकर इस तथ्य को स्पष्ट करते हैं। जहाँ मुक्ति के साधन में शंकर ज्ञान मार्ग का उपदेश देते है एवं भक्ति तथा कर्म को गौण स्थान देते हैं वहाँ रामानुज मुख्यतः भक्तिमार्ग का उपदेश देते हैं वे ज्ञान और कर्म को गौण स्वीकार करते हैं। १. यावदात्मभावित्वाच्च न दोषस्तदर्शनात् । ब्रस०, २-३-१३-३०॥ २. यावदस्य सम्यग्दर्शनेन संसारित्वं न निवर्तते, तावदस्य बुद्धया संयोगो न शाम्यति । ब्रसू० शां०भा०, २-३-१३-३० ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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