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________________ अध्याय ३. . ३. उपरति - अर्थात् कर्मत्याग । भोग भोगने की इतिश्री । मन और इन्द्रियों पर काबू होने पर वासना का क्षय हो जाता है। भोगों के सेवन करने की मन में अनिच्छा हो उसे उपरति कहते हैं । ४. तितिक्षा - अर्थात् सहनशीलता । सुख-दुःख, प्रिय-अप्रिय, ठंडी-गर्मी इत्यादि द्वन्द्वोंरूपी दुखों को मन से उपेक्षा करके उनके संताप को सहन करना । ५. श्रद्धा - शास्त्र और गुरु के वचनों पर सत्यबुद्धि रख उसे ग्रहण करना ये श्रद्धा है । इन पर शंका या संशय नहीं करना वह श्रद्धा है । आस्तिक बुद्धि यही श्रद्धा है । ६. समाधान - निद्रा, आलस्य, प्रमाद का त्याग करके मन का एकाग्र करना । इसे कितनेक समाधि भी कहते हैं। इससे संचित कर्म जन्य वासना क्षीण होकर समता का उदय होता जाता है। बुद्धि को हमेशा शुद्ध ब्रह्म में स्थिर करना यह समाधान कहलाता है। डॉ. पाल डायसन के इस क्रम में कुछ भिन्नत्व है-शम, दम, उपरति, तितिक्षा, समाधि, श्रद्धा ॥१ ४. मुमुक्षुत्व . अर्थात् मोक्ष की इच्छा । यह साधन चतुर्थ है, पर तीनों के साथ ही रहता है । इसकी उपस्थिति में पहले तीनों साधन सार्थक होते हैं । जब तक मनुष्य को आत्मदर्शन की तृषा न लगे तब तक वह इस मार्ग पर नहीं आ सकता । इस प्रकार ये चार साधन ब्रह्मजिज्ञासा के अधिकारी होते हैं। . इनकी तुलना जैनसम्मत सम्यक्त्व के पांच लिंग अथवा लक्षणउपशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य से कर सकते है । इनमें से शम, समाधान को उपशम के अन्तर्गत, संवेग में मुमुक्षत्व और विवेक, निर्वेद में वैराग्य, उपरति और तितिक्षा तथा आस्तिक्य में . श्रद्धा का अन्तर्भाव हो जाता है । अतः हम कह सकते हैं कि १. वेदांतदर्शन । पृ० ८० ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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