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________________ अध्याय ३ १९५ • धर्म का अर्थ है श्रद्धा, अहिंसा, भूतहितत्व, सत्य, अस्तेय, भावशुद्धि, क्रोधवर्जन, अभिषेचन, शुचिद्रव्यसेवन, देवताभक्ति, तप और अप्रमाद ।' इस प्रकार धर्म तत्त्वज्ञान को जन्माकर उसके द्वारा मोक्ष का उपाय या उसे मोक्ष का हेतु कहते हैं । ' न्यायसूत्रकर्ता गौतम कहते हैं कि तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति के लिए अध्यात्मविद्यारूप शास्त्र का अध्ययन करना चाहिये और उनके अर्थ का ग्रहण करना चाहिये । उस अर्थ के श्रवण का, मनन का और निदिध्यासन का सतत अयास एवं अध्यात्मज्ञानी के साथ चर्चा करनी चाहिये । . इस प्रकार हम देखते हैं कि ज्ञानग्रहण, ज्ञानाभ्यास और ज्ञानियों के साथ संवाद के परिणामस्वरूप प्रज्ञा का उदय होता है । प्रज्ञा के परिपाक से संशयोच्छेद होता है, अज्ञात अर्थ ज्ञात होता है फलस्वरूप तत्त्वज्ञान का उदय होता है। न्याय सूत्रकार कहते हैं कि प्रमेय आदि पदार्थों का तत्त्वज्ञान . होने से साक्षात् निःश्रेयस की प्राप्ति होती है तथा अवशिष्ट पदार्थों के तत्त्वज्ञान का अंग होने के कारण उनके तत्व की परम्परा से मोक्ष होता है। प्रमेय क्या है ?-आत्मा, इन्द्रिय, अर्थ, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव, फल, दुःख तथा अपवर्ग नामक पदार्थ प्रमेय ( जानने योग्य ) है । . इस विषय का उपसंहार करते हुए भाष्यकार स्पष्टतया कहते हैं कि-" इस प्रकार न्यायसूत्र के प्रारम्भ के प्रथम सूत्र में कही हुई इन चारों ही प्रकारों से विभाग किये हुए आत्मादि प्रमेय-पदार्थों की सेवा से, अभ्यास से, सदा उक्त विषयों के चिंतन करते करते १. प्रशस्तपादभाष्य, धर्मप्रकरण ।। २. धर्मविशेष प्रस्तृतात्. ..तत्त्वज्ञानाद निःश्रेयसम् , वै० सू० । १-१-४॥ ३. ज्ञानग्रहणाभ्यासस्तद्विद्येश्च सह संवादः. न्या० स० ४-२-४७ ।। ४. आत्मशरीरेन्द्रियार्थबुद्धि मनः प्रवृत्ति दोष प्रेत्यभावफलदुःखापवर्गास्तु प्रमेयम् । १-१-९ न्या० सू० एवं न्या० भा० ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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