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________________ १८७ अध्याय ३. विवेक ज्ञान और आत्यंतिक दुःखमुक्ति अशक्य है । सांख्य और योग दोनों के समन्वय से ही तत्त्वज्ञान, विवेकज्ञान और दुःखमुक्ति शक्य हो सकती है । ' बौद्ध दर्शन में सम्यग्दृष्टि के लिए 'कुशल' शब्द प्रयुक्त हुआ है उसी प्रकार योगभाष्य में क्लेशरहित विवेकी को कुशल कहा है ठीक इसके विपरीत जो क्लेशसहित अविवेकी है उसे अकुशल कह कर अभिप्रेत किया है । वस्तुतः यह क्लेशराहित्य से कुशलता सूचित की गई है, क्लेशराहित्य को चित्त की प्रसन्नता कह सकते हैं । योगभाष्य में चित्त की संप्रसाद अवस्था को श्रद्धा कहा है । चित्त में स्थित दुःखों को दूर करने के लिए योगदर्शन के अनुसार प्रकृति पुरुष का जो संयोग है, उसे तोड़ना चाहिये, क्योंकि दुःख का कारण संयोग है । और इस संयोग का कारण अविद्या है । परन्तु इस अविद्या की निरृत्ति तभी हो सकती है जब विवेक-ज्ञान का उदय हो । " यह विवेक ज्ञान योगांग के अनुष्ठान के परिणामस्वरूप चित्त की अशुद्धियों के दूर होने पर उदित होता है । " इस प्रकार योगदर्शन योगांग के अभ्यास व अनुष्ठान से विवेक की उत्पत्ति स्वीकार करते हैं । यह विवेक जब चित्त में उदित होता है तब पुरुष का लक्ष्य कैवल्य की ओर जाता है अन्यथा अविवेक के कारण वह संसार में भटकता रहता है । इस विषय में भाष्यकार १. सांख्य-योग [ षड्दर्शन प्रथम खंड ], पृ० २३० ।। २. अतः क्षीणक्लेशः कुशलः, योगभाध्य, २-४ ॥ प्रत्युदितख्यातिः क्षीणतृष्णः कुशल, यो० भा०, ४-३३ ॥ ३. श्रद्धा चेतसः सम्प्रसादः, यो० भा०, १२० ॥ ४. द्रष्टटदृश्ययोः संयोगो हेयहेतुः, यो० सूत्र, २-१७ ॥ ५. तस्य हेतुरविद्या, यो० ० २-२४ ।। ६. परमार्थतस्तु ज्ञानाददर्शनं निवर्तते । यो भा० ३-५५ ।। ७. योगागांनुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः । यो०सू०२-१८ ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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