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________________ अध्याय ३. ૨૮ श्रद्धा है ।' श्रद्धा राह खर्च बांधती है ।" दान भी उसीको देना चाहिये जिसमें श्रद्धा है ।" इस प्रकार श्रद्धा वीज, तपत्रृष्टि प्रज्ञा ही मेरा जुठार और हल है ।" इस प्रकार बुद्ध सम्यग्दृष्टि को नैतिक जीवन के लिए आवश्यक मानते हैं । इनकी दृष्टि में मिथ्या दृष्टिकोण संसार का किनारा है और सम् दृष्टिकोण निर्वाण का किनारा है । बुद्ध के ये वचन यह स्पष्ट कर देते हैं कि बौद्ध दर्शन में सम्यग्दृष्टि का कितना महत्त्वपूर्ण स्थान है | कुछ सामान्य मतभेदों को छोड़कर बौद्ध दृष्टिकोण जैन दर्शन के निकट ही है । हालांकि जैन विचारणा में तो इसका विस्तृत विवेचन है । (२) सांख्य एवं योगदर्शन बौद्ध सम्मत सम्यक्त्व चर्चा करके अब हम सांख्य एवं योग दर्शन में इस विचारधारा को प्रस्तुत करेंगे कि सम्यग्दर्शन या सम्यक् श्रद्धा का स्वरूप इसमें क्या निर्धारित है । प्रथमतः हम सांख्यदर्शन का निरूपण कर पश्चात् योगदर्शन पर दृष्टिपात करेंगे । सांख्यदर्शन के साहित्य में सम्यग्दर्शन या श्रद्धा का नाममात्र से तो उल्लेख प्राप्त नहीं होता, जबकि सम्यग्ज्ञान व विरति अर्थात् चारित्र का उल्लेख स्पष्टतया किया गया है । साथ ही ज्ञान और चारित्र से मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है यह भी उल्लिखित है । किंतु ज्ञान और चारित्र के पूर्व की स्थिति के रूप में सांख्य सिद्धांतों में विवेक ख्याति को स्वीकृत किया है । यह विवेक क्या सम्यग्दर्शन से अभिप्रेत है या १. वही, १-८-३ ॥ २ वही, १-८-९ ॥ ३. वही, ३-३-४ ॥ ४. वही, ७-२-१ ॥ ५. अंगुत्तर निकाय, १०-१२ ।। ६. (क) 'ज्ञानान्मुक्ति' सांख्यसूत्र, ३-२३ । (ख) विरक्तस्य तत्सिद्धेः, २- २, सांख्यसूत्र ||
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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