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________________ अध्याय ३. १७५ जैन दर्शन में सम्यग्दर्शन के दृष्टिकोणपरक व श्रद्धापरक ऐसे दो अर्थ स्वीकृत रहे हैं उसी प्रकार उपर्युक्त कथन बौद्ध दर्शन में भी ये दो अर्थ सूचित करता है । बौद्ध परम्परा में सम्यग्दर्शन के समानार्थी सम्यग्दृष्टि, श्रद्धा सम्यग्समाधि एवं चित्त शब्द मिलते हैं । बुद्ध ने अपने त्रिविध साधना मार्ग में कहीं शील, समाधि और प्रज्ञा, कहीं शील, चित्त, प्रज्ञा और कहीं शील, श्रद्धा और प्रज्ञा का विवेचन किया है । बौद्ध परम्परा में समाधि, चित्त और श्रद्धा का प्रयोग सामान्यतया एक ही अर्थ में हुआ है । वस्तुतः श्रद्धा चित्त विकल्प की शून्यता की ओर ले जाती है । श्रद्धा के उत्पन्न होने पर विकल्प समाप्त हो जाते हैं दृढ़ आस्था के कारण । उसी प्रकार समाधि की अवस्था में भी चित्त-विकल्पों की शून्यता होती है, अतः दोनों को एक ही माना जा सकता है। श्रद्धा और समाधि दोनों ही चित्त की अवस्थाएँ हैं, अतः चित्त का भी उसके स्थान पर प्रयोग किया गया है । चित्त की एकाग्रता समाधि और उसी की भावपूर्ण अवस्था श्रद्धा है । अतः चित्त, समाधि और श्रद्धा एक ही अर्थ की अभिव्यक्ति करते हैं । यद्यपि अपेक्षा -भेद से इनके अर्थों में भिन्नता भी है। श्रद्धा बुद्ध, संघ और धर्म के प्रति अनन्य निष्ठा है तो समाधि चित्त की शांत अवस्था है । · यदि हम सम्यग्दर्शन को तत्त्वदृष्टि या तत्त्वश्रद्धान से भिन्न श्रद्धापरक अर्थ में लेते हैं तो बौद्ध परम्परा में उसकी तुलना श्रद्धा से की जा सकती है । इसमें पांच इन्द्रियों में अर्थात् श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा में प्रथम इंद्रिय है ।' ये पांच इन्द्रियाँ आध्यात्मिक विकास की मुख्य शक्तियाँ है । ऐसा वार्डन ने कहा है । जैन दर्शन में इन पांच शक्तियों को क्रमशः सम्यग्दर्शन, विरति, अप्रमाद, अकषय और अयोग से अभिप्रेत किया है। दर्शन यह श्रद्धा है, विरति ही वीर्थ है, स्मृति १. जागर सुत्त, सं० नि०, १-१-६ ॥ 2 Indian Buddism, A. K. Warder P. 89-93 1
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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