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________________ १६८ जैन दर्शन में सम्यक्त्व की स्वरूः इसके साथ इस ग्रन्थ के इस पच्चीसवे द्वार में सम्यक्त्व किस प्रकार प्राप्त होता है ? तदन्तर्गत यथाप्रवृत्तकरण आदि तीन करण, सम्यक्त्व के भेद क्रमशः एक प्रकार से, दो प्रकार से, तीन प्रकार से, चार प्रकार से पांच प्रकार से किये है।' एक प्रकार से - जिनप्ररूपित तत्त्वों पर श्रद्धा ... दो प्रकार से - नैसर्गिक और उपदेशिक अथवा नैश्चयिक और व्यावहारिक अथवा द्रव्य से और भाव से नैसर्गिक अर्थात् स्वाभाविक एवं उपदेशिक से तात्पर्य है गुरु के उपदेश से होने वाला सम्यक्त्व । .. आत्मा का ज्ञानादिमय शुद्ध परिणाम यह नैश्चयिक सम्यक्त्व और इसके हेतु से उत्पन्न हुआ हो वह व्यावहारिक सम्यक्त्व है अमुक जिनेश्वर प्ररूपित है, इसलिए सत्य है किन्तु उसका परमार्थ नहीं जानते यह द्रव्य सम्यक्त्व है किंतु जो परमार्थं जानता है उसका सम्यक्त्व भाव से कहलाता है। इसी प्रकार क्षायोपशभिक सम्यक्त्व पौद्गलिक होने से द्रव्य सम्यक्त्व एव क्षायिक तथा औपशमिक दोनों आत्मपरिणामरूप होने से भाव सम्यक्त्व कहलाते हैं। कारक, रोचक तथा दीपक-इस प्रकार तीन प्रकार का अथवा क्षायोपशमिक औपशमिक एवं क्षायिक भेद से तीन प्रकार का सम्यक्त्व होता है। कारक-जिनोपदेश प्रमाणानुसार आचरण होना कारक सम्यक्त्व है। रोचक-ऐसे आचार पर सिर्फ रूचि ही होना रोचक सम्यक्त्व है तथा जो स्वयं तो मिथ्याष्टष्टि है किन्तु अन्यों को उपदेश देकर अपना सम्यक्त्व दीपावे उसका सम्यक्त्व दीपकसम्यक्त्व है।' १. वही, गाथा ६५७ ॥ २. वही, गाथा ६५८-६५९ ॥ ३. वही, गाथा ६६५ ॥ ४. वही, गाथा ६६६-६६७ ।। ५. वही, गाथा ६६८-६६९ ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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